यह व्रत कब करें
शनिवार का व्रत शनि महाराज को प्रसन्न करने के लिए रखा जाता है। जिनकी जन्म कुंडली में शनि की साढ़ेसाती चल रही है या शनि की महादशा चल रही है अथवा शनि शुभ होकर अशुभ स्थिति में है तब इसका व्रत किया जाना चाहिए। शनि महाराज अपनी दशा/अन्तर्दशा में मेहनत कराकर ही फल देते हैं। शनिवार के व्रत में एक समय के भोजन का विधान है। उड़द की दाल की खिचड़ी अथवा दाल खाई जाती है।
पूजा विधि
शनि की पूजा में काले तिल, काले वस्त्र, तेल, उड़द आदि का उपयोग किया जाता है क्योंकि ये सभी शनि महाराज की वस्तुएँ मानी जाती है। शनिवार के दिन सुबह के समय पीपल के पेड़ के नीचे सरसों के तेल का दीया जलाना चाहिए और पेड़ की जड़ को काले तिल अथवा काली उड़द मिले जल से सींचना चाहिए। नियमित रुप से व्रत और पूजा से शनि के प्रकोप को शांत किया जा सकता है। व्रत के दिन शनि के मंत्र का जाप तथा शनि स्तोत्र का पाठ किया जाना चाहिए।
शनिवार व्रत कथा
एक समय की बात है कि सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु तथा केतु ग्रहों की आपस में लडाई हो गई कि उनमें सबसे बड़ा कौन है? हर ग्रह अपने को सबसे बड़ा सिद्ध करने में लगा था। आपसी झगड़े का जब कोई हल ना निकल पाया तो सब मिलकर देवताओं के राजा इन्द्र देव के पास गए। उनसे सभी कहने लगे कि आप देवताओं के राजा हैं तो आप ही न्याय कर के बताएं कि हम में से सबसे बड़ा कौन है? राजा इन्द्र उनकी बात सुनकर घबरा गए कि मैं इतना सामर्थ्यवान नहीं हूँ जो यह बता पाऊँ कि आप सभी में सबसे बड़ा कौन है?
इन्द्र ने कहा कि मैं अपने मुख से आप लोगों के विषय में कुछ नही बता सकता लेकिन एक उपाय है जिससे यह बताया जा सकता है कि कौन बड़ा है! वह कहने लगे कि इस समय पृथ्वी पर राजा विक्रमादित्य राज कर रहे हैं जो दूसरों के दुख का निवारण करने वाले हैं। इसलिए तुम सभी मिलकर उन्हीं के पास जाओ वह आप सभी की शंका का निवारण अवश्य करेगें।
इन्द्र की बात सुन सभी नौ ग्रह राजा विक्रमादित्य के पास भूलोक में जाते हैं और उनकी सभा में उपस्थित होते हैं। राजा के सामने वे सभी अपना प्रश्न दोहराते हैं कि कौन बड़ा है? राजा विक्रमादित्य भी उनकी बात सुन सोच में पड़ जाते हैं कि मैं अपने मुख से कैसे किसी को बड़ा अथवा छोटा कह सकता हूँ? जिसको भी छोटा कहूँगा वही मुझ पर क्रोधित होगा लेकिन उन सभी के झगड़े का निबटारा करने के लिए उन्होंने एक उपाय सोचा। उन्होंने सभी नौ ग्रहों से संबंधित धातुओं के आसन बनवाएँ – सोना, चाँदी, कांसा, पीतल, शीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक और नवाँ लोहे का आसन। इन आसनों को इनकी कीमत के क्रम से बिछा दिया गया जैसे सोना सबसे आगे और लोहा सबसे पीछे गया। आसन लगने के बाद राजा विक्रमादित्य ने कहा कि आप सभी क्रम से अपना आसन ग्रहण कर ले, फिर बोले कि जिसका आसन सबसे आगे वह सबसे बड़ा और जिसका आसन सबसे पीछे है वह सबसे छोटा होगा। अब लोहे से बना आसन सबसे पीछे था तो शनि महाराज सबसे पीछे आ गए तो उनको समझ आ गया कि राजा ने उनको सबसे छोटा बना दिया है। इस पर शनि महाराज को बहुत क्रोध आया। शनि महाराज ने राजा विक्रमादित्य पर क्रोधित होकर कहा कि राजा तू मेरे पराक्रम को अभी जानता नहीं है। सूर्य एक राशि में केवल एक माह के लिए आता है। चन्द्रमा सवा दो दिन, मंगल डेढ़ माह, बुध व शुक्र एक-एक माह तो बृहस्पति तकरीबन 13 महीने, राहु/केतु डेढ़ साल लेकिन मैं ही एक ऎसा ग्रह हूँ जो एक राशि में ढाई साल तक रहता है। बड़े-बड़े देवताओं को भी मैने अपने दुख से परास्त कर दिया है। देवताओं भी मेरे भीषण दुख से अवगत हैं। राजा ! मेरी बात सुनो जब श्रीराम जी की साढ़ेसाती आई तब मैंने उन्हें वनवास दिला दिया। जब रावण की साढ़ेसाती आरंभ हुई तो लक्ष्मण व राम जी ने लंका पर चढ़ाई कर दी और रावण के कुल का नाश कर दिया। हे राजन ! अब तुम मुझसे बचकर रहना। राजा ने कहा कि जो होगा देखा जाएगा। विक्रमादित्य की सभा से सारे ग्रह प्रसन्नता के साथ वापिस गए परन्तु शनि महाराज वहाँ से क्रोधित होकर निकले। कुछ समय बाद राजा विक्रमादित्य की शनि की साढ़ेसाती आरंभ हुई तो शनिदेव घोड़ो के सौदागर बनकर सुंदर घोड़ो के साथ विक्रमादित्य की राजधानी में पधारे. विक्रमादित्य को जब घोड़ो की खबर पता चली तो उन्होंने अपने अश्वपालों को अच्छे घोड़े खरीदने की आज्ञा दी। अश्वपाल अच्छी नस्ल के घोड़ो की कीमत सुनकर चकित हो गया और तुरन्त ही राजा को खबर दी। राजा ने उन घोड़ो में से एक अच्छा सा घोड़ा चुना और सवारी के लिए उस पर सवार भी हो गया। घोड़े की पीठ पर चढ़ते ही घोड़ा तेजी से भागने लगा। घोड़ा बहुत दूर एक जंगल में जाकर भटकता फिरता रहा। बहुत देर तक भूखे प्यासे भटकते रहने के बाद राजा ने एक ग्वाले को देखा। राजा को प्यास से व्याकुल देख ग्वाले ने उन्हें पानी पिलाया। राजा ने प्रसन्न होकर अपने हाथ से एक अंगूठी निकाल कर ग्वाले को दे दी और फिर शहर की ओर चल दिए। राजा एक शहर में पहुंचा तो एक सेठ की दुकान पर जाकर बैठ गया और खुद को उज्जैन का रहने वाला बताकर अपना नाम वीका बताया। सेठ ने राजा को एक कुलीन मनुष्य समझकर जलादि पिलाया। भाग्यवश सेठ की दुकान में उस दिन बहुत अच्छी बिक्री हुई। जिससे सेठ राजा से प्रभावित हुआ और भोजन कराने के लिए उसे अपने घर ले गया। भोजन करते हुए राजा ने एक आश्चर्य की बात देखी कि खूँटी पर एक हार लटका हुआ है और उस हार को वह खूँटी निगल रही है। भोजन के बाद जब सेठ वापिस कमरे में आया तो देखा कि हार खूँटी पर नही है तो सभी ने यही सोचा कि वीका ने वह हार चोरी कर लिया है क्योंकि उस समय उसके सिवा कोई ओर कमरे में नहीं आया था। वीका ने सभी को बहुत कहा कि हार मैंने नही चुराया है लेकिन वीका की बात पर किसी को यकीन नहीं था। पाँच सात आदमी इकठ्ठा हुए और वीका को फौजदार के पास ले गए। फौजदार सारी बात जानकार वीका को राजा के सामने पेश करता है। वह कहता है कि शक्ल से तो यह भला व्यक्ति लगता है, चोर नहीं लगता लेकिन सेठ का कहना है कि जिस समय हार चोरी हुआ उस समय घर में इस आदमी के सिवा कोई नहीं था तो सिवाय इसके कौन चोरी कर सकता है। राजा ने सारी बात सुनकर आज्ञा दी कि इसके हाथ-पैर काटकर चौरंगिया किया जाए। राजा की आज्ञा का पालन किया गया और वीका के हाथ-पैर काट दिए गए। कुछ समय बीतने पर एक तेली वीका को अपने घर ले गया और कोल्हू पर वीका को बिठा दिया. वीका उस पर बैठकर अपनी जुबान से बैल हाँकता रहता। जब शनि की दशा समाप्त हो गई तब एक दिन रात को वर्षा ऋतु के समय वीका मल्हार राग गाने लगा। उसका गाना राजा की कन्या ने सुना तो वह उस पर मोहित हो गई। उसने अपनी दासी को पता करने भेजा कि यह राग कौन गा रहा है? दासी सारे शहर में घूमने के बाद देखती है कि यह राग तो चौरंगिया गा रहा है। दासी ने वापिस महल में आकर राजकुमारी को सारी बात बताई। राजकुमारी ने दासी की बात सुन उसी क्षण यह निर्णय कर लिया कि कुछ भी हो वह इसी से विवाह करेगी। सुबह के समय दासी जब राजकुमारी को जगाने आई तो वह नहीं उठी और अनशन व्रत ले लिया। दासी ने रानी के पास राजकुमारी के ना उठने की बात कही। रानी राजकुमारी के पास जाकर दुख का कारण पूछती है. राजकुमारी कहती है कि माँ ! मैने प्रण किया है कि उस तेली के घर में जो चौरंगिया है मैं केवल उसी के साथ विवाह करुंगी। माता ने कहा कि तू पगली है क्या? तेरा विवाह तो किसी देश के राजा से होगा. कन्या ने कहा कि मैने जो एक बार प्रण कर लिया है तो मैं उसे कभी नहीं तोड़ूंगी।माता को बहुत चिंता हुई तो उसने यह बात राजा को बताई।
राजा ने भी अपनी कन्या को बहुत समझाया कि मैं देश-देशान्तर में अपने दूत भेजकर तुम्हारे योग्य वर देखता हूँ। कन्या ने कहा कि पिताजी मैं अपने प्राण त्याग दूंगी लेकिन किसी ओर से विवाह नहीं करुंगी। कन्या की बात सुन राजा को बहुत क्रोध आया और उसने कहा कि यदि तेरे भाग्य में यही लिखा है तो तेरी जैसी इच्छा है वह कर। राजा ने तेली को बुलाकर कहा कि तेरे घर में जो चौरंगिया है मैं अपनी कन्या का विवाह उसके साथ करना चाहता हूँ। तेली ने कहा कि ये कैसे संभव हो सकता है.ल। कहां आप एक बहुत बड़े राजा और कहाँ मैं एक नीच तेली? राजा कहता है कि भाग्य का लिखा कौन टाल सकता है इसलिए तुम अपने घर जाओ और विवाह की तैयारी करो। राजा ने उसी समय तौरण और बंदनवार लगवाकर अपनी राजकुमारी का विवाह चौरंगिया विक्रमादित्य के साथ कर दिया। विवाह के बाद राजा विक्रमादित्य जब रात में सोया हुआ था तो स्वप्न में शनि महाराज आए और बोले कि कहो राजा ! कैसे हो? तुमने मुझे छोटा बताया था ना! अब दुख भुगत रहे हो ना ! राजा ने हाथ जोड़ शनि महाराज से क्षमा माँगी। शनिदेव इससे प्रसन्न हुए और राजा को उसके हाथ-पैर वापिस दे दिए। राजा विक्रमादित्य ने शनिदेव से कहा कि महाराज ! मेरी आपसे एक प्रार्थना है कि जैसा दुख आपने मुझे दिया वैसा दुख आप किसी ओर को ना दें। शनिदेव कहते हैं कि तुम्हारी यह प्रार्थना मुझे स्वीकार है लेकिन जो मेरी दशा में मेरा नाम लेगा, मेरा व्रत व पूजन करेगा, चींटियों को आटा डालेगा उसी के सारे काम पूरे होगें। यह सब कहने के बाद शनिदेव अपने धाम चले गए।
सुबह जब राजकुमारी की आँख खुली तो उसने राजा के हाथ-पैर सही सलामत देखे जिन्हें देख वह हैरान हो गई। उसको चकित देख राजा ने अपना सारा हाल कह सुनाया और बताया कि मैं तो उज्जैन का राजा विक्रमादित्य हूँ। सारी बातें जान वह अत्यधिक प्रसन्न हुई जब उसकी सखियों ने राजा के बारे में पूछा तो उसने उन्हें भी सारा हाल कह सुनाया। सभी ने राजकुमारी के सामने प्रसन्नता प्रकट की। उन्हें खुशी मिली कि राजकुमारी को ऎसा सुयोग्य वर मिला। राजा विक्रमादित्य की खबर सभी ओर फैल गई तो सेठ तक भी यह खबर पहुंची। वह राजा के पास आया और उनके पैरों पर गिर उनसे क्षमा माँगने लगा कि उसके कारण राजा को दुख उठाने पड़े और चोरी का झूठा इल्जाम भी सहना पड़ा। सेठ ने कहा कि आप इसके लिए जो दण्ड उचित समझें वह मुझे दे सकते हैं। राजा ने कहा कि आपकी कोई गलती नहीं हैं, मुझ पर शनिदेव का प्रकोप था जिसके कारण मेरे साथ यह सब हुआ। तुम अपने घर जाओ और अपना कार्य करो। सेठ ने कहा कि मेरे मन को तभी शांति मिलेगी जब आप मेरे घर चलकर प्रीतिपूर्वक भोजन करेगें। राजा ने सेठ की बात का मान रखा और कहा कि जैसी आपकी इच्छा। सेठ घर आया और राजा के लिए बहुत से व्यंजन तथा पकवान बनवाए और राजा को भोज कराया। राजा सहित सभी लोग भोजन करने लगे तभी सभी को एक आश्चर्यजनक बात दिखाई दी कि जो खूंटी पहले हार को निगल गई थी वही खूंटी अब हार को वापिस उगल रही है। भोजन समाप्त होने पर सेठ ने हाथ जोड़कर विक्रमादित्य को बहुत सी मोहरें राजा को भेट में दी और साथ ही कहा कि हे राजन ! मेरी एक कन्या है जिसका नाम श्रीकंवरी है। कृपया कर आप उसका पाणिग्रहण करें। यह कह सेठ ने अपनी कन्या का विवाह राजा के साथ कर दिया।विक्रमादित्य के साथ विवाह के बाद सेठ ने बहुत सा धन दहेज में दिया। कुछ दिन वहाँ रहने के बाद विक्रमादित्य ने शहर के राजा से कहा कि मेरी अब उज्जैन जाने की इच्छा है। कुछ ही दिनों में विदा ले राजा राजकुमारी मनभावनी व सेठ की पुत्री श्रीकंवरी व अनेक दास-दासियों के साथ रथ व पालकियों सहित उज्जैन की ओर चल दिए। उज्जैन के निकट पहुंचने पर नगरवासियों ने राजा के आने की खबर सुनी तो सारे उज्जैनवासी अपने राजा की अगवानी के लिए चल दिए। राजा सारी प्रजा को देख बहुत प्रसन्न हुए तथा प्रसन्नतापूर्वक अपने महल में पधारे। पूरे शहर को रात में दीपमाला से सजाया गया और बहुत बड़ा महोत्सव मनाया गया। अगले दिन राजा ने अपने राज्य में घोषणा की – शनिदेव सभी ग्रहों में सर्वोपरि हैं लेकिन मैंने इन्हें छोटा बतलाया जिसके कारण मुझे इतने सारे दुखों को झेलना पड़ा। विक्रमादित्य ने सभी को आपबीती बताई जिस कारण सारी प्रजा सदा के लिए शनिदेव का पूजन कर कथा सुनने लगी।
शनिदेव के आशीर्वाद से सारी प्रजा तथा राजा सुख भोगने लगे। जो भी व्यक्ति शनिदेव की इस कथा को कहता अथवा सुनता है तो शनिदेव की कृपा से उसके सभी दुख दूर हो जाते हैं। जिस दिन शनि का व्रत रखते हैं उस दिन शनि की कथा को अवश्य पढ़ा जाता है। कथा के बाद शनि की आरती करनी चाहिए।