त्रि + अम्बक = त्र्यम्बक का सामान्य अर्थ होता है तीन आँखों वाला। यह शब्द मृत्युंजय/ महामृत्युंजय मंत्र में आया है- ”त्र्यंबकं यजामहे…”। अबि (अम्ब) शब्दे – अष्टा. :१/२६२ सूत्र के अनुसार, अम्ब का अर्थ शब्द करना या निनाद करना होता है। —डा॰ आशीष

नामलिंगानुशासनं, अर्थात् ‘अमरकोषः’ के स्वर्ग-वर्ग में शिव के 48 पर्यायवाची शब्दों का उल्लेख मिलता है, जबकि ‘शिवपुराण’ में एक हजार शब्दों का, जो अतिरंजना और आवृत्ति से भरा हुआ है। ‘अमरकोषः’ में उल्लिखित समानार्थी शब्द इसप्रकार हैं –

शंभू
ईश
पशुपति
शिव
शूली
महेश्वर
ईश्वर
शर्व
ईशान
शंकर
चन्द्रशेखर
भूतेश
खंडपरशु
गिरीश
गिरिश
मृड
मृत्युंजय
कृत्तिवास
पिनाकी
प्रमथाधिप
उग्र
कपर्दी
श्रीकंठ
शितिकंठ
कपालभृत्
वामदेव
महादेव
विरूपाक्ष
त्रिलोचन
कृशानुरेता
सर्वज्ञ
धूर्जटि
नीललोहित
हर
स्मरहर
भग
त्र्यम्बक
त्रिपुरान्तक
गंगाधर
अंधरिपु
क्रतुध्वंसी
वृषध्वज
व्योमकेश
भव
भीम
स्थाणू
रुद्र
उमापति

इनके अतिरिक्त कुछ अन्य पर्यायवाची शब्द इसतरह हैं- ‘उ’, ‘ उत्तारक’, ‘शीघ्रिय’, ‘चन्द्रशेखर’, ‘चंद्रमौलि’, ‘महारेता’, ‘महायोगी’, ‘महेश’, ‘ उग्रधन्वा’, ‘महान्तक’, ‘त्रिपुरारि’, ‘महाक्ष’, ‘महान्तक’, ‘महाचार्य, ‘महाबीज’, ‘महारूप’, ‘महल्लिंग’, ‘महाव्रती’, ‘सतीश’, ‘शशीश’, ‘यतीश’, ‘लेलिहान’, ‘लम्बन’, ‘यज्ञारि’, ‘यज्ञह्न’, ‘एकपाद’, ‘नटराज’, ‘नटेश्वर’, ‘गोपेश्वर शिव’, ‘अर्द्धनारीश्वर’, ‘बैलवाला’, ‘कैलासनाथ’, ‘कैलासपति’ इत्यादि।
पर्यायवाची शब्दों की विविधता किसी भी भाषा की समृद्धि की द्योतक होती है। आज ‘शिव’ के जिन पर्यायवाची शब्दों पर विचार करने जा रहा हूँ, वे इसप्रकार हैं-

  • शिव
  • मृड
  • त्र्यंबक
  • धूर्जटि

शिव

‘शिव’ की व्युत्पत्ति दो धातुओं से मानी गई है – पहली, शयन करने के अर्थ में प्रयुक्त ‘शीड्.’ नामक आत्मनेपदी धातु में ‘वन्’ प्रत्यय के योग से; यथा- शीड्.+वन्=शिवः। ‘शीड्.’ की ‘शी’ ‘ह्रस्वश्च निपातितः’ नियम के अनुसार ‘शि’ में परिवर्तित हो गयी, जबकि ‘वन्’ के ‘न्’ का लोप हो गया। इसतरह, ‘शिव’ शब्द बन गया। देखिए ‘शीड्.स्वप्ने सूत्र(अष्टाध्यायी :२/२५)
संहारकर्त्ता भगवान के अर्थ में शिव की परिभाषा इसप्रकार की गई है – शेते गिरौ( कैलास पर्वते) सो शिवः, अर्थात् जो कैलास पर सोता है । इसकी दूसरी व्याख्या यों की जाती है – ‘शेते जगत् अस्मिन्, तेन शिवः’, अर्थात् इसमें संसार सोता है, इसीलिए शिव कहलाता है। यह व्याख्या उनके संहारक रूप को हमारे समक्ष रखती है।शुभ या कल्याण (गुड) के अर्थ में यह नपुंसक ‘शिवम्’ की तरह प्रयुक्त होता है; जैसे-
श्रेयसं शिवमं भद्रं कल्याणं मंगलं शुभम्। भावुकं भविकं भव्यं कुशलं क्षेमम् (अमरकोषः)।
तब इसकी व्याख्या इसतरह होगी- शेते अनेन इति शिवम्, अर्थात् इसके द्वारा सुलाया जाता है। प्रश्न है किसे? उत्तर होगा, जीव को – उसके पापों, दुख-तकलीफों को। शिव की दूसरी व्युत्पत्ति :
तनूकरण, अर्थात् पतला/ क्षीण करने के अर्थ में प्रयुक्त परस्मैपदी धातु ‘शो’ में ‘वन्’ प्रत्यय लगाने से ‘शिवः’ शब्द बनता है, जिसका अर्थ होता है- जो जीव के पाप-कष्ट आदि को क्षीण कर दे, अर्थात् खत्म कर दे – श्यति पापम्। इसका स्त्रीवाची रूप ‘शिवा’ होता है। यह उनकी शक्ति,पत्नी या सेना होती है। इसतरह, ‘शिव’ शब्द व्याकरण की दृष्टि से एक ओर है विशेष्य (संज्ञा) है तो दूसरी ओर विशेषण। विशेषण-रूप में इसका अर्थ होता है- मांगलिक, शुभ, स्वस्थ, प्रसन्न। विशेष्य-रूप में इसके अर्थ होते हैं – भगवान शिव(व्यक्तिवाचक), मोक्ष, क्षेम, सुख,जल इत्यादि।

मृड

सुख देने, प्रसन्न करने या होने के अर्थ में प्रयुक्त परस्मैपदी धातु ‘मृड’ में ‘क’ प्रत्यय लगाने से ‘मृडः’ शब्द बनता है। इसका अर्थ होता है – अपने भक्तों को प्रसन्न करने वाला या सुख देने वाला। औरों को प्रसन्न करने के साथ-साथ स्वयं में प्रसन्न रहने वाला भी। ‘मृड’ का दूसरा अर्थ चूर-चूर करना, कूटना या पीसना भी होता है। दूसरे शब्दों में, जो भक्तों के दुखों को चूर-चूर कर दे या कूट-पीसकर रख दे, उसे ‘मृड’कहते हैं। देखिए यह सूत्र –
1.) मृड क्षोदे सुखे च (अष्टाध्यायी : ९/४८)
2.) मृड सुखने (वही; ६/३९) प्रथम सूत्र से लट्लकार में मृड्णाति-मृड्णातः-मृड्णान्ति रूप बनता है, जबकि द्वितीय सूत्र से मृडति-मृडतः – मृडन्ति -रूप।

त्र्यम्बक

त्रि + अम्बक = त्र्यम्बक का सामान्य अर्थ होता है तीन आँखों वाला। यह शब्द मृत्युंजय/ महामृत्युंजय मंत्र में आया है- ”त्र्यंबकं यजामहे…”। अबि (अम्ब) शब्दे – अष्टा. :१/२६२ सूत्र के अनुसार, अम्ब का अर्थ शब्द करना या निनाद करना होता है। किंतु, विवेच्य संदर्भ में अम्ब या अम्बक का अर्थ नेत्र या दृष्टि होता है, जिसकी पुष्टि ‘हलायुध’ (कोष) से होती है; यथा -‘अम्बकं नयनं दृष्टिः’। इस आधार पर त्र्यम्बक की व्याख्या इन शब्दों में होगी-

‘त्रीणि अम्बकानि यस्येति त्र्यम्बकः, अर्थात् जिसके तीन नेत्र हों, उसे त्र्यम्बक कहते हैं। प्रश्न है, ये तीन नेत्र कौन हैं? उत्तर होगा- सूर्य, चंद्र और अग्नि।वाम नेत्र चन्द्र, दक्षिण नेत्र सूर्य तथा ललाटस्थित या भ्रूमध्यस्थित तृतीय नेत्र अग्नि (योगशास्त्र के अनुसार)। शिव का तीसरा नेत्र असामान्य परिस्थिति में खुलता है, यानी सक्रिय होता है। सामान्य परिस्थिति में यह निमीलित, अर्थात् निष्क्रिय अवस्था में पड़ा रहता है। इसे आप आपातकालिक नेत्र (Emergency Eye)भी कह सकते हैं। कामदेव को उन्होंने इसी नेत्र से भस्मीभूत किया था। ‘त्र्यम्बक’ की दूसरी व्याख्या शब्द के आधार पर की गई है। ऊपर आपने देखा कि ‘अम्ब’ का अर्थ शब्द या ध्वनि करना होता है। इस दृष्टि से इसका विश्लेषण यों होगा- त्रिषु लोकेषु कालेषु वा अम्बः शब्दो वेदलक्षणो यस्य इति। अर्थात् तीनों लोकों या कालों में शब्द करने वाला।
त्रयः अकारोकारमकारा अम्बः शब्दा वाचका यस्य इति (त्र्यम्बकः), अर्थात् अकार, उकार तथा मकार नामक तीन तरह के शब्दों के वाचक जो हैं, उसे त्र्यम्बक कहते हैं। प्रकारांतर से उनके तीनों नेत्र क्रमशः ‘अ’कार ‘उ’कार तथा ‘म’कार के द्योतक हैं। (अकार, उकार, मकार की व्याख्या आगे देखिए)
तिस्त्र: अम्बा: द्यौर्भूम्यापो यस्येति,अर्थात् द्यौ,भू, आप ये तीन अम्ब हैं जिसके। इन तीनों के वाचक हैं, उनके नेत्र अथवा भगवान शिव ने इन तीनों लोकों को आयत्त कर रखा है।
‘त्र्यम्बक’ की तीसरी व्याख्या अम्ब या अम्बक के पिताधारित अर्थ के आलोक में की गई है, जैसे त्रयाणां लोकानाम्बकः. – पिता इति, अर्थात् तीनों लोगों का अम्बक (पिता) है जो, अर्थात् त्रैलोक्य-स्वामी। इसतरह, तीन अम्बक क्रमशः नेत्र, लोक, काल, वेद( ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद) तथा अकार, उकार, मकार के वाचक हैं।

धूर्जटि

‘धूर्जटि’ ‘धूः’ और ‘जटि’ इन दो शब्दों के योग से बना है। इसका अर्थ अमरकोषः के भाष्यकार भानुजि दीक्षित ने यों किया है – ‘धूर्गड्.गा जटास्वस्य इति, अर्थात् इसकी जटाओं में ‘धूः'(गंगा) का निवास है। इसके पूर्व दीक्षित जी ने ‘धूर्भारभूता जटिर्यस्य’ जिसकी जटाओं में धू- गंगा भारभूत रूप में है। ‘धूः’ का प्रयोग धातु की तरह भी होता है, जिसका अर्थ होता है, हिलाना या कँपाना। इसका दूरारूढ़ अर्थ होगा, जो अपनी जटाओं को हिलाने मात्र से स्थिति में परिवर्तन ला देता है। वह स्थिति भक्त की हो या देशकाल की।

अत्+डु= उः का अर्थ होता है संहारक शिव। यह ब्रह्म के वाचक ओsम् (अ+उ+म्) का दूसरा रूप है। ‘अ’ का वाचक विष्णु है तो ‘म’ का ब्रह्मा। देखिए –
अकारो विष्णुरुद्दिष्ट उकारस्तु महेश्वरः।
मकारस्तु स्मृतो ब्रह्मा प्रणवस्तु त्रयात्मकः।।

(अकार से विष्णु, उकार से महेश्वर तथा मकार से ब्रह्मा नामक त्रिमूर्ति से ब्रह्म, अर्थात प्रणव की कल्पना की गई है।) अंग्रेजी में GOD इसी का प्रतिरूप है; यथा- G=Generator (ब्रह्मा), O=Operator(विष्णु) D= Destryor (शिव)अर्थात् कर्त्ता-भर्त्ता-हर्त्ता।
ये पाँच शब्द नहीं, शिव की अर्चना में अर्पित पाँच फूल हैं ।आगे अन्य शब्दों को लेकर आऊँगा। तब तक के लिए नमस्कार! शिव-शिवा आपका कल्याण करें – ‘शिवास्ते पन्थाः’ ।.

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