वैष्णव आचार्यों में प्रमुख रामानुजाचार्य की शिष्य परम्परा में ही रामानंद हुए थे जिनके शिष्य कबीर और सूरदास थे। रामानुज ने वेदांत दर्शन पर आधारित अपना नया दर्शन विशिष्ट द्वैत वेदान्त गढ़ा था।

1017 ई. में रामानुज का जन्म दक्षिण भारत के तिरुकुदूर क्षेत्र में हुआ था। बचपन में उन्होंने कांची में यादव प्रकाश गुरु से वेदों की शिक्षा ली। रामानुजाचार्य आलवन्दार यामुनाचार्य के प्रधान शिष्य थे। गुरु की इच्छानुसार रामानुज ने उनसे तीन काम करने का संकल्प लिया था:- ब्रह्मसूत्र, विष्णु सहस्रनाम और दिव्य प्रबंधनम की टीका लिखना। उन्होंने गृहस्थ आश्रम त्यागकर श्रीरंगम के यदिराज संन्यासी से संन्यास की दीक्षा ली।

रामानुजाचार्य ने वेदांत के अलावा सातवीं-दसवीं शताब्दी के रहस्यवादी एवं भक्तिमार्गी अलवार सन्तों से भक्ति के दर्शन को तथा दक्षिण के पंचरात्र परम्परा को अपने विचार का आधार बनाया।

पिता की मृत्यु के उपरांत रामानुजाचार्य कांची चले गए जहाँ उन्होंने यादव प्रकाश नामक गुरु से वेदाध्ययन प्रारंभ किया। यादव प्रकाश की वेदांत टिकाएं शंकर-भाष्य से प्रेरित थी और मायावादी विचारों का प्रतिपादन करती थी । श्री रामानुजाचार्य की बुद्धि इतनी कुशाग्र थी कि वे अपने गुरु की व्याख्या से भी अधिक विस्तृत व्याख्या कर दिया करते थे। रामानुज के गुरु ने बहुत मनोयोग से शिष्य को शिक्षा दी। वेदांत का इनका ज्ञान थोड़े समय में ही इतना बढ़ गया कि इनके गुरु यादव प्रकाश के लिए इनके तर्कों से पार पाना कठिन हो गया। रामानुज की विद्वत्ता की ख्याति निरंतर बढ़ती गई। इनकी शिष्य-मंडली भी बढ़ने लगी। यहाँ तक कि इनके गुरु यादव प्रकाश भी इनके शिष्य बन गए। रामानुज द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत ‘विशिष्टाद्वैत’ कहलाता है। श्रीरामानुजाचार्य बड़े ही विद्वान, सदाचारी, धैर्यवान और उदार थे। चरित्रबल और भक्ति में तो ये अद्वितीय थे। 

विशिष्टाद्वैत दर्शन : रामनुजाचार्य के दर्शन में सत्ता या परमसत् के सम्बन्ध में तीन स्तर माने गए हैं:- ब्रह्म अर्थात ईश्वर, चित् अर्थात आत्म, तथा अचित अर्थात प्रकृति।

वस्तुतः ये चित् अर्थात् आत्म तत्त्व तथा अचित् अर्थात् प्रकृति तत्त्व ब्रह्म या ईश्वर से पृथक नहीं है बल्कि ये विशिष्ट रूप से ब्रह्म का ही स्वरूप है एवं ब्रह्म या ईश्वर पर ही आधारित हैं यही रामनुजाचार्य का विशिष्टाद्वैत का सिद्धान्त है।

भक्ति से तात्पर्य: श्रीरामानुजाचार्य ने भक्तिमार्ग का प्रचार करने के लिये सम्पूर्ण भारत की यात्रा की। इन्होंने भक्तिमार्ग के समर्थन में गीता और ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा। वेदान्त सूत्रों पर इनका भाष्य श्रीभाष्य के नाम से प्रसिद्ध है। इनके द्वारा चलाये गये सम्प्रदाय का नाम भी श्रीसम्प्रदाय है। इस सम्प्रदाय की आद्यप्रवर्तिका श्रीमहालक्ष्मी जी मानी जाती हैं। श्रीरामानुजाचार्य ने देश भर में भ्रमण करके लाखों लोगों को भक्तिमार्ग में प्रवृत्त किया। यात्रा के दौरान अनेक स्थानों पर आचार्य रामानुज ने कई जीर्ण-शीर्ण हो चुके पुराने मंदिरों का भी पुनर्निमाण कराया। इन मंदिरों में प्रमुख रुप से श्रीरंगम्, तिरुनारायणपुरम् और तिरुपति मंदिर प्रसिद्ध हैं। इनके सिद्धान्त के अनुसार भगवान विष्णु ही पुरुषोत्तम हैं। वे ही प्रत्येक शरीर में साक्षी रूप से विद्यमान हैं। भगवान नारायण ही सत हैं, उनकी शक्ति महा लक्ष्मी चित हैं और यह जगत उनके आनन्द का विलास है। भगवान श्रीलक्ष्मीनारायण इस जगत के माता-पिता हैं और सभी जीव उनकी संतान हैं।

मूल ग्रन्थ : ब्रह्मसूत्र पर भाष्य ‘श्रीभाष्य’ एवं ‘वेदार्थ संग्रह’।

error: Content is protected !!