किसी ने सही ही कहा है कि भगवान के पांव में स्वर्ग होता है। उनके चरणों जैसी पवित्र जगह और कोई नहीं है। इसलिए तो लोग भगवान के चरणों का स्पर्श पाकर अपने जीवन को सफल बनाने की होड़ में लगे रहते हैं।लेकिन भगवान के चरणों का इतना महत्व क्यों है क्या कभी आपने जाना है?

भगवान श्री के चरणरज की ऐसी महिमा है कि यदि इस मानव शरीर में त्रिभुवन के स्वामी भगवान विष्णु के चरणारविन्दों की धूलि लिपटी हो तो इसमें अगरू, चंदन या अन्य कोई सुगन्ध लगाने की जरूरत नहीं, भगवान के भक्तों की कीर्तिरूपी सुगन्ध तो स्वयं ही सर्वत्र फैल जाती है ।

संसार के पालनहार व परम दयालु भगवान विष्णु सबमें व्याप्त हैं । शेषनाग की शय्या पर शयन करने वाले व शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण करने वाले भगवान श्री विष्णु के चरण-कमल भूदेवी (भूमि) और श्रीदेवी (लक्ष्मी) के हृदय-मंदिर में हमेशा विराजित रहते हैं । भगवान श्री के चरणों से निकली गंगा का जल दिन-रात लोगों के पापों को धोता रहता है ।

जो मनुष्य नित्य-निरन्तर उनके चरण-कमलों की दिव्य गन्ध का सेवन करता है भगवान श्री विष्णु उनके हृदयकमल में अपने चरणकमलों की स्थापना करके स्वयं भी उनके अंत:करण में निवास करने लगते हैं । भगवान श्री के चरण-कमलों के प्रताप से ही उनके सेवकों का मन भटकता नहीं है, उनके मन की चंचलता मिट जाती है और पापों का नाश हो जाता है।

भगवान श्री के चरणों में शंख का चिह्न है । शंख भगवान का विशेष आयुध है । यह सदा विष्णु भगवान के हाथ में रहता है । शंख विजय का प्रतीक है । जिस मनुष्य के हृदय में भगवान के चरण रहते हैं, वह सब पर विजयी हो जाता है । उसके सारे विरोधी-भाव शंखध्वनि से नष्ट हो जाते हैं ।

भगवान श्री के चरणों में ऊर्ध्वरेखा का चिह्न है । सामुद्रिक विज्ञान के अनुसार जिसके चरण में ऊर्ध्वरेखा होती है, वह सदैव ऊंचे की ओर बढ़ता जाता है । जो मनुष्य अपने हृदय में भगवान के चरणों का ध्यान करता है, उसकी गति और दृष्टि ऊर्ध्व हो जाती है, वह सीधे ही अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है ।

भगवान श्री विष्णु के चरणों में राजा बलि का चिह्न है । भगवान राजा बलि को ठगने गए थे परन्तु अपने-आप को ठगा आए और उन्हें सदैव राजा बलि के द्वार पर पहरेदार बन कर रहना पड़ता है । भगवान ने बलि के मस्तक पर देवताओं के लिए भी दुर्लभ अपने चरण रखे और चरणों में ही बलि को स्वीकार कर लिया । राजा बलि का शरीर भगवान के चरणों में अंकित हो गया, इससे बढ़कर सौभाग्य की बात क्या हो सकती है ? राजा बलि को पहले राज-मद था । प्रह्लादजी ने जो कि उनके पितामह थे, उनको समझाया पर बलि नहीं माने । प्रह्लादजी ने देखा कि बीमारी बढ़ गयी है तो भगवान का स्मरण किया । भगवान ने वामन रूप में आकर बलि के सम्पूर्ण राज्य के साथ शरीर तक को नाप लिया । राजा बलि ने जब राजत्व का साज हटाकर मस्तक झुकाया, तब प्रभु ने उसके आंगन में खड़े रहना अंगीकार किया । यह मानभंग, ऐश्वर्यनाश आदि भगवान की बड़ी कृपा से होता है । जैसा रोग होता है, भगवान वैसी ही दवा देते हैं । बलि का सब कुछ हर लिया पर सुदामा को सबकुछ दे दिया । जो मनुष्य सब प्रकार से अपने को भगवान के चरणों में समर्पण कर देता है, उसके पास भगवान सदा के लिए बस जाते हैं ।

भगवान के चरणों में दर्पण का चिह्न है । दर्पण में प्रतिबिम्ब दीखता है, उसी तरह यह जगत भगवान का प्रतिबिम्ब है—‘वासुदेव सर्वम्’, सब कुछ, सब जगह भगवान-ही-भगवान हैं । किसी भी छवि को दर्पण रखता नहीं है वरन् छवि की शोभा को बढ़ाकर देखने वाले को आनन्द प्रदान करता है । भगवान के चरणों में प्रेम रखकर जो भगवान को सुखी करना चाहते हैं, भगवान भी उनकी पूजा स्वीकार कर उन्हें कोटिगुना प्रेम और आनन्द लौटाकर सुखी करते हैं । इसके अतिरिक्त दर्पण के सामने जो जैसा जाता है, दर्पण उसे वैसा ही रूप लौटा देता है । भगवान के चरणों में जो जिस भाव से जाएगा, भगवान उसका वह भाव उसी रूप में प्रदान करेंगे । गीता में भगवान ने कहा है—‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।’ ‘जो जिस भाव से मुझे भजता है, मैं भी उन्हें उसी तरह भजता हूँ ।’

भगवान के चरणों में सुमेरुपर्वत का चिह्न है । सुमेरु का अर्थ है—जिसका मेरु सुन्दर हो । सुमेरु को सोने का पहाड़ भी कहते हैं । इस सुमेरु को कुछ लोग ‘गोवर्धन’ कहते हैं जिसे भगवान ने अपनी कनिष्ठा अंगुली के नख पर उठाया था । भगवान ने उसे सदा के लिए अपने चरणों में बसा लिया है । सुमेरु के बिना किसी वस्तु की स्थिति नहीं । सूर्य भी सुमेरु पर उगते हैं । इसलिए सुमेरु रात-दिन की संधि है । जपमाला में भी सुमेरु होता है । सुमेरु माला को व्यवस्था में रखने वाला केन्द्र है । स्वर्णमय सुमेरु के अंदर अनन्त धनराशि छिपी है । जिसे भगवान के चरण प्राप्त हो जाते हैं, उसे संसार का सबसे बड़ा धन प्राप्त हो जाती है । उसकी जीवनमाला व्यवस्थित हो जाती है । वह जीवन-मृत्यु की संधि को समझ जाता है ।

भगवान के चरणों में घंटिका का चिह्न है । यह भगवान की विशेष प्रिय वस्तु है । पूजा में यह अत्यन्त आवश्यक है । भगवान की करधनी में छोटी-छोटी घंटी लगी रहती है, नूपुर के साथ यह भी बजती है । इसका तान्त्रिक अर्थ भी है । अनहद नाद में दस प्रकार के स्वर होते हैं । इसमें तीसरा स्वर घंटिका का होता है । घंटी ‘क्लीं क्लीं क्लीं’ का उच्चारण करती है। यही श्रीकृष्ण का महाबीज—प्रेम बीजमन्त्र है । यह बीज घंटिका के रूप में आया है इसलिए पूजा का प्रधान उपकरण है; इसलिए भगवान के चरणों में इसे
स्थान प्राप्त है।

भगवान के चरणों में वीणा का चिह्न है । वीणा भगवान को विशेष प्रिय है, जिसे भगवान ने नारदजी को
प्रदान किया था । वाद्यों में सबसे प्राचीन वीणा है । वीणा में सारे स्वर एक साथ हैं । यह आदि वाद्य है । गायन की विभूति रूप में इसे भगवान के चरणों मे स्थान मिला है । वीणा भगवान का नाम गाती है । जिसके हृदय में भगवान के चरण हैं उसे सदैव सब जगह वीणा का स्वर सुनाई देता है।

बिनती करि मुनि नाइ सिरु कह कर जोरि बहोरि।
चरन सरोरुह नाथ जनि कबहुँ तजै मति मोरि॥4॥

भावार्थ:-मुनि ने (इस प्रकार) विनती करके और फिर सिर नवाकर, हाथ जोड़कर कहा- हे नाथ! मेरी बुद्धि आपके चरण कमलों को कभी न छोड़े॥

अर्थात्–मैं भगवान के परम पवित्र चरण-कमलों की वंदना करता हूँ जिनकी ब्रह्मा, शिव, देव, ऋषि, मुनि आदि वंदना करते रहते हैं और जिनका ध्यान करने मात्र से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं।

जिस प्रकार धनलोलुप मनुष्य के मन में सदैव धन बसता है वैसे ही हे प्रभु ! मेरे मन में सदैव आपके चरण-कमल का वास है |
जय श्री हरि.

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