चैत्र का महीना हिंदुओं के लिए बहुत ही पवित्र महीना है। अलग अलग राज्य में अलग-अलग नामों से सही लेकिन बहुत ही उत्साह के साथ इस महीने में त्योहार मनाए जाते हैं।
इसी तरह गणगौर का व्रत बहुत ही धूमधाम से राजस्थान और उसके आसपास के हिस्सों में मनाया जाता है। यह चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाया जाता है इस दिन सौभाग्य स्त्रियां व्रत रखती है मान्यता है कि जिन पार्वती ने भगवान शंकर से सौभाग्यवती रहने का वरदान प्राप्त किया था और पार्वती जी ने अन्य स्त्रियों को भी सौभाग्यवती रहने का वरदान दिया था।
गणगौर राजस्थान में आस्था प्रेम और पारिवारिक सौहार्द का सबसे बड़ा उत्सव है। गण (शिव) तथा गौर(पार्वती) के इस पर्व में कुँवारी लड़कियां मनपसंद वर पाने की कामना करती हैं। विवाहित महिलायें चैत्र शुक्ल तृतीया को गणगौर पूजन तथा व्रत कर अपने पति की दीर्घायु की कामना करती हैं।
होलिका दहन के दूसरे दिन चैत्र कृष्ण प्रतिपदा से चैत्र शुक्ल तृतीया तक,१८ दिनों तक चलने वाला त्योहार है -गणगौर।यह माना जाता है कि माता गवरजा होली के दूसरे दिन अपने पीहर आती हैं तथा आठ दिनों के बाद ईसर (भगवान शिव )उन्हें वापस लेने के लिए आते हैं ,चैत्र शुक्ल तृतीया को उनकी विदाई होती है।
गणगौर की पूजा में गाये जाने वाले लोकगीत इस अनूठे पर्व की आत्मा हैं। इस पर्व में गवरजा और ईसर की बड़ी बहन और जीजाजी के रूप में गीतों के माध्यम से पूजा होती है तथा उन गीतों के बाद अपने परिजनों के नाम लिए जाते हैं। राजस्थान के कई प्रदेशों में गणगौर पूजन एक आवश्यक वैवाहिक रस्म के रूप में भी प्रचलित है।
गणगौर पूजन में कन्यायें और महिलायें अपने लिए अखंड सौभाग्य,अपने पीहर और ससुराल की समृद्धि तथा गणगौर से हर वर्ष फिर से आने का आग्रह करती हैं।
गणगौर व्रत कथाः एक समय की बात है, भगवान शंकर, माता पार्वती एवं नारद जी के साथ भ्रमण हेतु चल दिए। वह चलते-चलते चैत्र शुक्ल तृतीया को एक गांव में पहुंचे। उनका आना सुनकर ग्राम कि निर्धन स्त्रियां उनके स्वागत के लिए थालियों में हल्दी व अक्षत लेकर पूजन हेतु तुरंत पहुंच गई । पार्वती जी ने उनके पूजा भाव को समझकर सारा सुहाग रस उन पर छिड़क दिया। वे अटल सुहाग प्राप्त कर लौटी।
थोड़ी देर बाद धनी वर्ग की स्त्रियां अनेक प्रकार के पकवान सोने चांदी के थालो में सजाकर सोलह श्रृंगार करके शिव और पार्वती के सामने पहुंची। इन स्त्रियों को देखकर भगवान शंकर ने पार्वती से कहा तुमने सारा सुहाग रस तो निर्धन वर्ग की स्त्रियों को ही दे दिया। अब इन्हें क्या दोगी? पार्वती जी बोली प्राणनाथ! उन स्त्रियों को ऊपरी पदार्थों से निर्मित रस दिया गया है ।
इसलिए उनका सुहाग धोती से रहेगा। किंतु मैं इन धनी वर्ग की स्त्रियों को अपनी अंगुली चीरकर रक्त का सुहाग रख दूंगी, इससे वो मेरे सामान सौभाग्यवती हो जाएंगी। जब इन स्त्रियों ने शिव पार्वती पूजन समाप्त कर लिया तब पार्वती जी ने अपनी अंगुली चीर कर उसके रक्त को उनके ऊपर छिड़क दिया जिस पर जैसे छींटे पड़े उसने वैसा ही सुहाग पा लिया।
पार्वती जी ने कहा तुम सब वस्त्र आभूषणों का परित्याग कर, माया मोह से रहित हो जाओ और तन, मन, धन से पति की सेवा करो । तुम्हें अखंड सौभाग्य की प्राप्ति होगी। इसके बाद पार्वती जी भगवान शंकर से आज्ञा लेकर नदी में स्नान करने चली गई । स्नान करने के पश्चात बालू की शिव जी की मूर्ति बनाकर उन्होंने पूजन किया।
भोग लगाया तथा प्रदक्षिणा करके दो कणों का प्रसाद ग्रहण कर मस्तक पर टीका लगाया। उसी समय उस पार्थिव लिंग से शिवजी प्रकट हुए तथा पार्वती को वरदान दिया आज के दिन जो स्त्री मेरा पूजन और तुम्हारा व्रत करेगी उसका पति चिरंजीवी रहेगा तथा मोक्ष को प्राप्त होगा। भगवान शिव यह वरदान देकर अंतर्धान हो गए ।
इतना सब करते-करते पार्वती जी को काफी समय लग गया। पार्वती जी नदी के तट से चलकर उस स्थान पर आई जहां पर भगवान शंकर व नारद जी को छोड़कर गई थी।
शिवजी ने विलंब से आने का कारण पूछा तो इस पर पार्वती जी बोली मेरे भाई भावज नदी किनारे मिल गए थे। उन्होंने मुझसे दूध भात खाने तथा ठहरने का आग्रह किया।
ऐसा जानकर अंतर्यामी भगवान शंकर भी दूध भात खाने के लालच में नदी तट की ओर चल दिए। पार्वती जी मौन भाव से भगवान शिव जी का ध्यान करके प्रार्थना की भगवान आप अपनी अनन्य दास जी की लाज रखो, प्रार्थना करते हुए पार्वती जी उनके पीछे-पीछे चलने लगी। उन्हें दूर-दूर नदी तट पर माया का महल दिखाई दिया। महल के अंदर शिव जी के साले और सहलज ने शिव पार्वती का स्वागत किया वे दो दिन वहां रहे तीसरे दिन पार्वती जी ने शिवजी को चलने के लिए कहा तो भगवान शिव चलने को तैयार नहीं हुए। तब पार्वती जी रूठ कर अकेली चली। ऐसी परिस्थिति में भगवान शिव को भी पार्वती के साथ चलना पड़ा ।नारद जी भी साथ चलते चलते शंकर भगवान बोले मैं तुम्हारे मायके में अपनी माला भूल आया हूंँ। माला लाने के लिए पार्वती जी तैयार हुई तो भगवान ने पार्वती जी को न भेजकर नारद जी को भेजा किंतु वहां पहुंचने पर नारद जी को ना कोई महल नजर आया वहां दूर-दूर तक जंगल था। सहसा बिजली कौंधी, नारद जी को शिव जी की माला एक पेड़ पर टंगी दिखाई दी। नारद जी ने माला उतार शिव जी के पास पहुंचकर यात्रा करके बताने लगे। शिवजी हंसकर कहने लगे सब पार्वती की लीला है इस पर पार्वती जी बोली मैं किसी और कहूंँ यह सब तो आपकी कृपा है। ऐसा जानकर महर्षि नारद जी ने माता पार्वती तथा उनके पति व प्रभाव से उत्पन्न घटना की मुक्त कंठ से प्रशंसा की।
जहां तक उनके द्वारा पूजन की बात को छुपाने का प्रश्न है वह भी उचित जान पड़ता है क्योंकि पूजा छिपाकर ही करनी चाहिए क्योंकि पार्वती जी ने व्रत को छुपाकर किया उसी परंपरा के अनुसार आज भी पूजन के अवसर पर पुरुष उपस्थित नहीं रहते हैं।