त्वत्तीरे मणिकर्णिके हरिहरौ सायुज्यमुक्तिप्रदौ
वादं तौ कुरुत: परस्परमुभौ जन्तौ: प्रयाणोत्सवे।
मद्रूपो मनुजोSयमस्तु हरिणा प्रोक्त: शवस्तत्क्षणात्
तन्मध्याद् भृगुलाण्छनो गरुडग: पीताम्बरो निर्गत:।।१।।
हे मणिकर्णिके! आप के तट पर भगवान विष्णु और शिव सायुज्य मुक्ति प्रदान करते हैं। (एक बार) जीव के महाप्रयाण के समय वे दोनों (उस जीव को अपने-अपने लोक ले जाने के लिए) आपस में स्पर्धा कर रहे थे। भगवान विष्णु, शिवजी से बोले कि यह मनुष्य अब मेरा स्वरुप हो चुका है. उनके ऎसा कहते ही वह जीव उसी क्षण भृगु के पद-चिन्हों से सुशोभित वक्ष:स्थलववाला तथा पीताम्बरधारी होकर गरुड़ पर सवार हो उन दोनों के बीच से निकल गया।
इन्द्राद्यास्त्रिदशा: पतन्ति: नियतं भोगक्षये ते पुन-
र्जायन्ते मनुजास्ततोSपि पशव: कीटा: पतंगादय:।
ये मातर्मणिकर्णिके तव जले मज्जन्ति निष्कल्मषा:
सायुज्येSपि किरीटकौस्तुभधरा नारायणा: स्युर्नरा:।।२।।
इन्द्र आदि देवतागणों का भी यथा समय पतन होता है भोग के पूर्ण हो जाने पर वे पुन: मनुष्य योनि में उत्पन्न होते हैं और उसके बाद भी पशु-कीट-पतंग आदि के रूप में जन्म लेते हैं; किंतु हे माता मणिकर्णिके! जो मनुष्य आपके जल में स्नान करते हैं वे निष्पाप हो जाते हैं और सायुज्य-मुक्ति हो जाने पर किरीट तथा कौस्तुभधारी साक्षात नारायणरूप हो जाते हैं।
काशी धन्यतमा विमुक्तिनगरी सालड़्कृता गंगया
तत्रेय मणिकर्णिका सुखकरी मुक्तिर्हि तत्किड़्करी ।
स्वर्लोकस्तुलित: सहैव विबुधै: काश्या समं ब्रह्मणा
काशी क्षोणितले स्थिता गुरुतरा स्वर्गो लघु: खे गत:।।३।।
गंगा से अलंकृत विमुक्तिनगरी काशी परम धन्य है उस काशी में यह मणिकर्णिका परमानन्द प्रदान करने वाली है; मुक्ति तो निश्चित रूप से उसकी दासी है। ब्रह्माजी जब काशी को और सभी देवताओं सहित स्वर्ग को तौलने लगे तब काशी, स्वर्ग की तुलना में, भारी पड़ने के कारण पृथ्वी तल पर स्थित हो गई और स्वर्ग हलका पड़ने के कारण आकाश में चला गया।
गंगातीरमनुत्तमं हि सकलं तत्रापि काश्युत्तमा
तस्यां सा मणिकर्णिकोत्तमतमा यत्रेश्वरो मुक्तिद:।
देवानामपि दुर्लभं स्थलमिदं पापौघनाशक्षमं
पूर्वोपार्जितपुण्यपुंजगमकं पुण्यैर्जनै: प्राप्यते।।४।।
गंगा के सम्पूर्ण तट अत्युत्तम हैं; किंतु उनमें काशी सर्वोतम है उस काशी में वह मणिकर्णिका उत्तमोत्तम है, जहाँ मुक्ति प्रदान करने वाले साक्षात भगवान विश्वनाथ विराजते हैं. सम्पूर्ण पापों का नाश करने में समर्थ यह स्थल देवताओं के लिये भी दुर्लभ है। पूर्वजन्म में अर्जित किये गये पुण्य समूह की प्रतीति कराने वाला यह स्थान पुण्यशाली लोगों को ही सुलभ हो पाता है।
दु:खाम्भोनिधिमग्नजन्तुनिवहास्तेषां कथं निष्कृति-
र्ज्ञात्वैतद्धि विरंचिना विरचिता वाराणसी शर्मदा।
लोका: स्वर्गमुखास्ततोSपि लघवो भोगान्तपातप्रदा:
काशी मुक्तिपुरी सदा शिवकरी धर्मार्थकामोत्तरा।।५।।
दुख सागर में डूबे हुए जो प्राणीसमूह हैं उनका उद्धार कैसे हो सकेगा, यह विचार कर के ब्रह्माजी ने कल्याणदायिनी वाराणसीपुरी का निर्माण किया। स्वर्ग आदि प्रधान लोक भोग के पूर्ण हो जाने के पश्चात पतन की प्राप्ति कराने के कारण उस काशी से बहुत छोटे हैं। यह काशी सदा मुक्ति प्रदान करने वाली तथा कल्याण करने वाली है. यह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप पुरुषार्थचतुष्ट्य प्रदान करती है।
एको वेणुधरो धराधरधर: श्रीवत्सभूषाधरो
यो ह्येक: किल शंकरो विषधरो गंगाधरो माधर:।
ये मातर्मणिकर्णिके तव जले मज्जन्ति ते मानवा
रुद्रा वा हरयो भवन्ति बहवस्तेषां बहुत्वं कथम्।।६।।
मुरली धारण करने वाले, गोवर्धन पर्वत धारण करने वाले तथा वक्ष:स्थल पर श्रीवत्सचिह्न धारण करने वाले विष्णु एक ही हैं, उसी प्रकार कण्ठ में विष धारण करने वाले, अपनी जटा में गंगा को धारण करने वाले और अर्द्धांग में उमा को धारण करने वाले जो भगवान शंकर हैं, वे भी एक ही हैं; किंतु हे माता मणिकर्णिके! जो मनुष्य आपके जल में अवगाहन करते हैं, वे सभी रुद्र तथा विष्णुस्वरुप हो जाते हैं, उनके बहुत्व के विषय में क्या कहा जाए।
त्वत्तीरे मरणं तु मंगलकरं देवैरपि श्लाघ्यते
शक्रस्तं मनुजं सहस्त्रनयनैर्द्रष्टुं सदा तत्पर:।
आयान्तं सविता सहस्त्रकिरणै: प्रत्युद्गतोSभूत्सदा
पुण्योSसौ वृषगोSथवा गरुडग: किं मन्दिरं यास्यति।।७।।
(हे मात:) आपके तट पर होने वाली मंगलकारी मृत्यु की तो देवता भी सराहना करते हैं. देवराज इन्द्र अपने हजार नेत्रों से उस मनुष्य का दर्शन करने के लिए सदा लालायित रहते हैं। सूर्यदेव भी उस जीव को आता हुआ देखकर अपनी हजार किरणों से उसके सम्मान के लिए सदा उसकी ओर बढ़ते हैं. (यह देखकर देवतागण सोचते हैं कि) वृषभ पर सवार होकर अथवा गरुड़ पर आसीन होकर यह पुण्यात्मा जीव (कैलाश अथवा वैकुण्ठ) न जाने किस लोक में जाएगा?
मध्याह्ने मणिकर्णिकास्नपनजं पुण्यं न वक्तुं क्षम:
स्वीयै: शब्दशतैश्चतुर्मुखसुरो वेदार्थदीक्षागुरु:।
योगाभ्यासबलेन चन्द्रशिखरस्तत्पुण्यपारं गत-
स्त्वत्तीरे प्रकरोति सुप्तपुरुषं नारायणं वा शिवम्।।८।।
वेदार्थतत्त्व की दीक्षा देने वाले गुरुस्वरुप चतुर्मुख ब्रह्मदेव अपने सैकड़ो शब्दों से भी मध्याह्न काल में मणिकर्णिका के स्नानजन्य पुण्य का वर्णन करने में समर्थ नहीं है. केवल चन्द्रमौलि भगवान शिव अपने योगाभ्यास के बल से उस पुण्य को जानते हैं तथा (हे माता!) वे ही आपके तट पर मृत्यु को प्राप्त पुरुष को साक्षात नारायण अथवा शिव बना देते हैं।
कृच्छ्रै: कोटिशतै: स्वपापनिधनं यच्चाश्वमेधै: फलं
तत्सर्वं मणिकर्णिकास्नपनजे पुण्ये प्रविष्टं भवेत्।
स्नात्वा स्तोत्रमिदं नर: पठति चेत्संसारपाथोनिधिं
तीर्त्वा पल्वलवत्प्रयाति सदनं तेजोमयं ब्रह्मण:।।९।।
।।इति श्रीमच्छड़्कराचार्यविरचितं श्रीमणिकर्णिकाष्टकं सम्पूर्णम् ।।
करोड़ो-करोड़ो कृच्छ्र आदि प्रायश्चित व्रतों से जो पाप का नाश होता है तथा अश्वमेधयज्ञों से जो फल प्राप्त होता है, वह सब मणिकर्णिका में स्नान करने से प्राप्त पुण्य में समाविष्ट हो जाता है। यदि मनुष्य (वहाँ) स्नान करके इस स्तोत्र का पाठ करे तो वह संसार सागर को एक छोटे से तालाब की भाँति पार करके तेजोमय ब्रह्मलोक में पहुँच जाता है।
।।इस प्रकार श्रीमत शंकराचार्यविरचित श्रीमणिकर्णिकाष्टक सम्पूर्ण हुआ।।