आज के सुशिक्षित मानव ने जीवन यापन हेतु अनेकों व्यवस्थाएं कर ली है। हर प्रकार के सुविधाओं से सम्पन्न हो चुके हैं। विश्राम  हेतु सुंदर भवन है, भवन में आरामदायक शैय्या है, नाना प्रकार से बैठने हेतु आसान हैं, शरद ऋतु में हीटर है गीज़र है, ग्रीष्म ऋतु में वातानुकूलित है, यातायात हेतु सुविधानुसार सुंदर वाहन है, इत्यादि नाना प्रकार के विलासिताओं से युक्त हैं।.

व्यापार, नॉकरी, अथवा अन्य धनोपार्जन करने  हेतु अनेकों उद्योग है। दिनचर्या भी सबके निश्चित है । मानव जीवन मे इतना कुछ होते हुवे भी, मानसिक तनाव से मुक्ति नही है। पारिवारिक असमंजसता दूर नही हो पाती ,आंतरिक कलह तथा दिग्भ्रांति(upset) लगी रहती है,अब ध्यान देने योग्य बात यह है कि हमारे द्वारा उपार्जित इतने सुख और सुविधाओं के पश्चात भी हम मानसिक रूप से सुखी नही हैं । कहीं न कहीं किसी न किसी स्तर पर ऐसी समस्याएं लगी रहती हैं जिनसे हम वैयक्तिक रूप से अत्यंत दुखी रहते हैं । आखिर क्यों? । क्या कमी रह गई है कि हम सम्पन्न होते हुवे भी सुखी नही हो पा रहे है ।  क्यों हमें रात को नींद नही आती है। कभी -कभार ये परिस्थितियां मृत्यु तुल्य कष्ट देने लगती हैं,इनके वजह से हमारा मन विषमताओं से भर जाता है ।इनके कारण हम संकीर्ण होने लगते है। मुझे उम्मीद है कि हम कभी इन प्रश्नों को अपने विलासिताओं के समक्ष  यदि करें तो निश्चित ही उत्तर स्पष्ट हो जाएगा। हम वातानुकूल के इतने आदी हो गए है कि अपनी पूरी फैक्ट्री भी यदि बिना वाहन अथवा ac के घूम लेते है तो बीमार पड़ जाते है,पालथी मारकर कुछ समय बैठ जाते है तो पैर सुन्न पड जाता है, इत्यादि -इत्यादि अनेकों ऐसी स्थितियां हैं जिन्हें करने मात्र से ही हम परेशान हो जाते है,इन सभी परिस्थितियों का मूल कारण हमारा विलासिताओं से अत्यधिक  मोह है, यही मोह हमारे प्रज्ञा चक्षु को नष्ट करके हमारे भीतर चिड़चिड़ाहट का बीज बो देता है।  मेरा तात्पर्य यह कदापि नही है कि आप इनको त्याग दीजिये। ऐसा मत कीजिये क्योंकि ये जीवनचर्या के मुख्य धारा में आ चुके हैं । हमें इन विलासिताओं का आदी नही होना चाहिए, इनका उपयोग सर्वदा संयमित करना चाहिए।


स्वामी गोविन्ददेव गिरी जी महाराज ने भी इसी विषय को गंभीरता से बतलाया है कि -“अपने क्षेत्र में सफल होना एक बात है ,और सुखी होना दूसरी बात है ।एक सत्य घटना मैन पढ़ी थी। पच्चीस साल पहले की बात है ।अमेरिका के आठ बहुत सम्पन्न लोग आए।वे बार-बार एते थे। उनकी संपत्ति इतनी थी कि अमेरिकन सरकार की संपत्ति भी  इन आठों के इकट्ठी दौलत से कम पड़ती थी। धन कमाना ही उनका लक्ष्य था। और उन्होंने लक्ष्य प्राप्त किया  किन्तु काल प्रवाह के साथ  उनकी स्थितियां बदलीं । आठ में से 2  का दिवाला निकल गया ,तीन ने आत्महस्त्य कर ली, एक बुढ़ापे में पागल हो गया, एक किसी अपराध कद कारण जेल चला गया ।और एक को कारागृह से  इस  कारण मुक्ति मिली कि कम से कम जीवन की अंतिम सांसें तो वो अपने घर मे ले सके। ये आठों व्यक्ति  सफलता पाने का प्रयास करते – करते  उसके शिखर पर तो पहुंच गए  किन्तु जेवन में उन्होंने सुख नही देखा।”
स्वामी जी के द्वारा लिखे गए इन तथ्यों और उदाहरणों से स्पष्ट है कि हम धन कमाकर केवल विलासिताओं का भोग कर सकते है ।पर शारीरिक और मानसिक रूप से कभी स्वस्थ नही रह सकते।  
हमारे मानसिकता में फैल रही विविध प्रकार के अज्ञान रूपी अमर्यादित भ्रांतियां,तथा इन भ्रांतियों से पैदा होते कुविचार हमारे परिवार तथा समाज को वास्तविक  ज्ञान से कोसों दूर लिए जा रही हैं,
इस प्रकार हमारी मानसिकता शनैः शनैः संकीर्ण होती जा रही  है। इस संकीर्णता के अंधक ने हम मनुष्यों को पाशविक तथा आसुरी जीवन व्यतीत करने पर मजबूर कर दिया है।कुछ लोग अपने नाशवान (नश्वर) ज्ञान को पोषित करने  हेतु,तथा अपनी विलासिताओं के पुर्णता हेतु कर रहे कुकृत्य को भी सुकृत्य साबित कर देते हैं। बड़े-बड़े ज्ञानी अपने ज्ञान के दिखावे और आडम्बर के कारण भ्रमित होते जा रहे हैं। उनके ज्ञान में आध्यात्म से अधिक भौतिकता को प्राथमिकता दी जाती है, वो अपने ज्ञान को मिथ्यावशात्  वेदों और पुराणों  द्वारा  प्रतिपादित साबित कर संसार से  वेदों की महत्ता तथा अनिवार्यता को पृथक करते जा रहे हैं। शरीर की सुंदरता और पवित्रता पर बल देकर मन की पवित्रता को अनिवार्यता भुला दी जा रही है। 

Sanatan Gurukul


समाज शासक और धर्म की दृष्टिकोण से जो भी उच्च वर्णों अथवा उच्च पदों पर स्थापित है, वो जन साधारण की अज्ञानता का अनुचित लाभ उठा रहे हैं। जिन वेदों ,शास्त्रों और ज्ञान का उद्देश्य इस संसार का कल्याण है, इस संसार मे उन्हें ही अत्याचार और शोषित एवं अन्याय का माध्यम बनाया जा रहा है।  क्योकि तभी वो उनपर शास्त्रों, वेदों,और ज्ञान के अन्य स्रोतों के अनुपयुक्त, और अनुचित व्याख्या से नियंत्रण पा सकें, उनपर अपना वर्चस्व स्थापित कर सकें, उनका यह सोंचना है कि यदि इस संसार मे सभी ज्ञानी हो गए वेदज्ञ हो गए तो उन्हें अज्ञान का भय नही होगा, उन्हें असत्य से नियंत्रण नही किया जा सकेगा। इस प्रकार से ज्ञान के नाम पर कुछ ऐसे लोग आडम्बर कर रहे है। भागवत कथा में स्वयं श्रृंगार करते हैं, कथा में ज्ञान और तथ्य की बात करने के स्थान पर नृत्य संगीत करते हैं। वेद की बात तो इसलिए नहीं करते कि वेद वो जानते ही नहीं। मुझे बहुत दुःख इस बात का होता है कि मैकाले शिक्षण पद्धति ने हमारी शिक्षा व्यवस्था को इस प्रकार से तोड़-मरोड़ कर   हम भारतीयों के खून में सींच दिया है कि हम ज्ञान और कर्म को त्याग कर विषय और कामलोलुप हो गए हैं। अजीब विडंबना है कि पूर्वकाल में जिस भारत को मनीषियों ने विश्वगुरु, कर्मभूमि, तथा मोक्षसोपान की उपाधि दी है, उसी भारत को वासनाओं में संलिप्त रहने वाले तुच्छ स्वार्थी लोगों ने चारित्रिक, व्यवहारिक, सामाजिक तथा शैक्षणिक रूप से पतित बनाने में कोई भूमिका नही छोड़ी है। उन्होंने चालाकी से हमें शिक्षा के रूप में निकृष्ट बनाया, तत्पश्चात उनके स्वयं के द्वारा निर्मित टेक्नोलॉजी में सहयोग हेतु रोबोट के भांति प्रयोग किया। वो इसी शिक्षण के आधारभूत हमारे देश के लोगों को लालच देकर अपने देश में ले गए, वहाँ की असंस्कृति तथा कुसंस्कार से परिचित करवाकर विलासिताओं का चरम सुख प्रदान किया। इसी तरह से हमारी बुद्धि उनके कुसंस्कारों का गुलाम होती चली गई । मैकाले का कथन भी स्पष्ट था –
“We must do our best to form a class who may be interpreters between us and the millions whom we govern; a class of persons Indian in blood and colour, but English in taste, in opinions, words, and intellect.” – T.B. Macaulay, in support of his Education Policy as presented in 1835 to the then Governor-General, Willium Bentick.
“हमारे तथा जिन पर हमारा शासन है ऐसे करोड़ों जनों के बीच दुभाषिए का कार्य करने में समर्थ एक वर्ग तैयार करने के लिए हमें भरपूर कोशिश करनी है; उन लोगों का वर्ग जो खून एवं रंग में भारतीय हों, लेकिन रुचियों, धारणाओं, शब्दों एवं बुद्धि से अंग्रेज हों।”
हम स्वयं यदि इतिहास का  समुचित अध्ययन कर  एक- एक तथ्यों का सुयोग्य ढंग से चिंतन करें  तो आपको निश्चित हीं समझ मे आ जायेगा। आप समझ जाएंगे कि हमें वेदों के ज्ञान  से दूर क्यों किया गया,आपको पता चल जाएगा कि आप परतंत्र कितने हो और स्वतंत्र कितने। कुछ दिनों पूर्व एक सज्जन मेरे पास वेद विद्यालय में आये और पूछने लगे कि यहां क्या चलता है, सर्वप्रथम मैं उनसे उनका परिचय पूछा,वो सज्जन  किसी कारखाने के मालिक थे और विद्यालय के समीप ही कॉलोनी में उनका घर था। तत्पश्चात मैं उनको विद्यालय का परिचय दिया,और यहां क्या-क्या अध्ययन करवाया जाता है इसकी जानकारी स्पष्ट रूप में दी।इतने में उन्होंने कहा कि क्यों इन बच्चों का जीवन खराब कर रहे हो इत्यादि उन्होंने जो भी कहा मैं शांत होकर उनके कथन को सुनने लगा । उन सज्जन के मन मे जितनी भी विषमताएं थीं  वेदों के प्रति उन्होंने सब कह दिया,इस पर मैं उनको  बड़े हीं शालीनता से एक मुहावरे के रूप में उत्तर दिया कि -नई पीढ़ी के बच्चों को देखिए वो क्या कर रहे है,माता पिता और राष्ट्र के प्रति उनकी श्रद्धा कितनी है वो भी देखिए ,छोटी अवस्था मे ही मदिरा ,धूम्रपान इत्यादि का सेवन कर रहे हैं । इनके कृत्य से इनके माता पिता अत्यंत दुखी है ,यदि ऐसे बालकों के माता पिता लेश मात्र भी वैदिक संस्कार का पालन करते तो इनके बालक कदापि इस अशिक्षा की ओर नही आते। एक मुहावरा है- “बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से पाओगे” । उन्होंने कहा कि कृपया स्पष्ट रूप में बताएं, मैंने कहा कि ,हमारे स्वतंत्र भारत की शिक्षा पद्धति अपनी नही है।
रक्षा प्रणाली भी स्वतंत्र भारत मे हमारी अपनी नही है। संविधान और न्यायालय की आधारशिला भी हमारी अपनी नही है।आजादी के पूर्व हमारे भारत को इस प्रकार से आंतरिक रूप में तोड़ा गया तत्पश्चात जिस ढंग से आजादी के बाद हमारे भारत की संरचना की गई है उस ढंग से  वेदादि शास्त्र सम्मत ज्ञान-विज्ञान को उद्भाषित नही किया जा सकता।भारत को सैद्धान्तिक धरातल पर परतंत्र बनाये रखते हुवे वैदिक शिक्षा पद्धति से बिल्कुल दूर रखा गया है। इन्ही सभी कारणों को लक्ष्य करके पूज्य स्वामी श्री गोविन्ददेव गिरी जी महाराज  20वीं सदी से समाज में ज्ञान का प्रचार- प्रसार करते हुवे लोगों के मानसिकता से अज्ञान रूपी मलिनता का प्रक्षालन कर रहे हैं,इनके इस प्रयास से भारतीय सभ्यता ,सर्वधर्म समन्वयता तथा सामाजिक संस्कार में अद्भुत परिवर्तन हो रहा है।पूज्य स्वामी जी के मार्गदर्शन में “गीता परिवार”, श्री ज्ञानेश्वर गीता प्रचार समिति इत्यादि अनेक संस्थाएं स्वामी जी के स्वप्न को साकार करने का अथक प्रयास कर रही हैं।इतना कुछ बताने पर वो सज्जन संतुष्ट हुवे, और वेद ज्ञान को फलित होने के लिए सहयोग करने का संकल्प लिए। 
 अब हमें जागना होगा ,वास्तविकता को पहचानने हेतु आंखें खोलनी पड़ेंगी, पूज्य  स्वामी जी ने पुष्कर में एक इंटरव्यू के दौरान कहा कि-  वेदों कि शिक्षा हमारे अगली पीढ़ी के बालकों को प्राप्त होनी  चाहिए,क्योकि इन्हें वेदों कि शिक्षा नही मिलेगी तो हमारी राष्ट्रीय विचार सांस्कृतिक धारा के अनुसार नही रहेगी, हमारे जीवन के प्रत्येक संस्कार वैदिक मंत्रों द्वारा ही संभव है ,परंतु आज उन वैदिक मंत्रों से न होने के कारण हमारा समाज बहुत बड़ी मात्रा में अर्थहीन-दिशाहीन होता जा रहा है। पूज्य स्वामी जी के इस सूत्र पर प्रकाश डालते हुवे मैं कहना चाहता हूं कि- Court Marriage  का विवाह हमारे भारत में सदैव तथ्य हीन और वियोगपूर्ण ही साबित हुआ है,कचरे के डब्बे में नवजात भी मैकाले पद्धति के कारण पड़ा हुआ है। विवाह में विलासिताओं का दहेज मांग भी वैदिक पद्धति के खिलाफ ही है। नारी केवल भोग की वस्तु है ये तथ्य भी वेद में  नही मिलता ,बल्कि नारी पुरुष की शक्ति है,पुरुष की प्रकृति है ,नारी पूज्य है ये तथ्य वेदादि ग्रंथों में पाए जाते है।  पूज्य श्री ने कहा कि संसार के श्रेष्ठ वैज्ञानिकों ने भी अब वेदों में से उपयुक्त सिद्धांतों को स्वीकार कर मानव जीवन के कल्याण हेतु प्रस्तुत किये है,उन्होंने कृषि से लेकर मनोविज्ञान और साक्षात्कार तक सभी सिद्धांतों को अपनाया है,इसके लिए उन वैज्ञानिकों का कहना है कि सर्वप्रथम वेद मंत्रों का पठन-पाठन तथा संरक्षण अति आवश्यक है । पूज्य स्वामी जी के संकल्प को सिद्ध करने हेतु हमें निस्वार्थ रूप से कटिबद्ध होना पड़ेगा।तभी हमारा,हमारे परिवार का,हमारे बालकों का एवं हमारे समाज का कल्याण है।तभी हम विलासिताओं से आध्यात्म कि ओर अग्रसर होंगे।तथा तभी हम अपने बालकों को संस्कार तथा मार्गदर्शन दे सकते है।

~आचार्य अभिजीत

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