उपनिषद, गीता और वेदान्त दर्शन(ब्रम्हसूत्र) इन्हें हमारे सनातन धर्म में प्रस्थानत्रयी के नाम से जाना जाता है ।
जीव,जगत और ईश्र्वर का प्रतिपादन कर आत्मतत्व के सिद्धान्त की स्थापना इनका मुख्य विषय है। प्रस्थानत्रयी का संधि विच्छेद करने पर इसका जो संधि विच्छेद है वह इस प्रकार है : प्रस्थान+त्रयी अर्थात तीन प्रस्थान ।। प्रस्थान अर्थात जाना, कुछ विद्वान इसका भाव इस प्रकार लेते हैं कि मुक्ति की ओर ले जानेवाली त्रयी और कुछ विद्वान इन तीनों शास्त्रों से होकर जाना ऐसा अर्थ लेते हैं ।। सनातन धर्म का यह सिद्धांत रहा है कि यदि किसी को भी आध्यात्मिक सिद्धान्त दर्शन की स्थापना करनी है तो उसे इन तीन प्रस्थानों के आधार पर ही शास्त्रार्थ के द्वारा सिद्ध करना होता है ।

तीनों के बारे में संक्षेप में जानकारी :
उपनिषद :
उपनिषद वेदों के अभिन्न अंग हैं, इनकी कुल संख्या १०८ या उससे भी अधिक कही गई है ।। मुख्य उपनिषद इस प्रकार हैं : कठोपनिषद, ईशावास्योपनिषद, बृहदारण्यक उपनिषद,  केनोपनिषद, मुण्डकोपनिषद, माण्डूक्योपनिषद, प्रश्नोपनिषद, छान्दोग्योपनिषद, ऐतरेयोपनिषद,तैत्तरीय उपनिषद,श्वेताश्वर उपनिषद, अरण्यक उपनिषद। ये सभी उपनिषद किसी न किसी वेदों से लिये गए हैं इसीलिए इन्हें वेदों का अभिन्न अंग कहा जाता है।।

गीता :
गीता को श्रुति और स्मृति दोनों में आचार्यों द्वारा रखा गया है अर्थात गीता श्रुति ( उपनिषद ) और स्मृति (इतिहास या पुराण ) दोनों का अंग है ।। गीता में हर अध्याय का अंत “श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे” इस प्रकार है अर्थात गीता उपनिषद और योगशास्त्र दोनों है ।। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के मुख से निकलने के कारण इसकी महत्ता और भी बढ़ जाती है, यह साक्षात चारों पुरूषार्थों को सिद्ध करने में हेतु है। स्वामी मधुसूदन सरस्वती गीता के सम्बंध में इस की व्याख्या करते हुए कहते हैं :


सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः।
पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत।।

—  “समस्त उपनिषद गौओं के समान  हैं, उन्हें दुहने वाला ग्वाला कृष्ण है। उस दुग्ध का प्रथम आस्वादन करने वाला अर्जुन उसका बछड़ा है और सारे विद्वान तथा शुद्ध भक्त भगवद्गीता के अमृतमय् दूध का पान करने वाले हैं।”



भगवाम वेदव्यास कहते हैं:
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता।



गीता सुगीता करने योग्य है अर्थात श्री गीताजी को भली प्रकार पढ़कर उसे अर्थ व भावसहित हृदय में धारण कर लेना ही मुख्य कर्तव्य है, जो कि स्वयं पद्मनाभ भगवान श्री विष्णु के मुखकमल से निकली हुई है, फिर अन्य शास्त्रों के विस्तार से क्या प्रयोजन?

वेदान्त दर्शन ( ब्रम्हसूत्र ) :
वेदान्त दर्शन (ब्रम्हसूत्र) बादरायण मुनि ( महर्षि वेदव्यास ) द्वारा रचित न्याय, ब्रम्हविद्या और अध्यात्म का बहुत ही उच्च कोटि का दर्शन और न्याय शास्त्र है। ब्रम्हसूत्र ने उपनिषद के तत्वों और ज्ञान को सिद्ध किया है, सारे अवैदिक मतों का खंडन कर वैदिक सिद्धान्तों की स्थापना इसके द्वारा होती है। ये बहुत सूक्ष्म सूत्र रूप में हैं, अतः बिना किसी टीका ( व्याख्यान) के इसको समझना लगभग असंभव सा होता है । यह मूलरूप से शास्त्रार्थ पद्धति पर लिखा गया है, इसलिए भी इसकी भाषा बहुत ही क्लिष्ट ( कठिन ) जान पड़ती है ।।
स्वयं गीता में भगवान अपने श्री मुख से ब्रम्हसूत्र का वर्णन करते हुए क्या कहते हैं, नीचे देखिए, इससे भी ब्रम्हसूत्र की महत्ता और अधिक बढ़ जाती है ।।

ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक्।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्िचतैः।। (गीता १३.५)

— (यह क्षेत्रक्षेत्रज्ञका तत्त्व) ऋषियोंके द्वारा बहुत विस्तारसे कहा गया है तथा वेदोंकी ऋचाओं-द्वारा बहुत प्रकारसे कहा गया है और युक्तियुक्त एवं निश्चित किये हुए ब्रह्मसूत्रके पदोंद्वारा भी कहा गया है।

प्रस्थानत्रयी एक प्रासादिक ग्रंथ हैं, इनका अध्ययन करनेवाला और उसका अभ्यास व पालन करनेवाला भवसागर से पार उतरने में सक्षम होता है।।
श्री परमात्मने नम:

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