मुहूर्त:-
अमावस्या तिथि आरंभ:- 9 जून- 1:57 pm
अमावस्या तिथि समाप्त:-10 जून- 4:20 pm व्रत 10 जून 2021 को मन जाएगा।

वट सावित्री व्रत हिन्दू धर्म का महत्वपूर्ण व्रत है। इस व्रत को विवाहित महिलाएं अपने पति की दीर्घायु एवं सुखी जीवन के लिए रखती हैं। हिन्दू धर्म मे ऐसी मान्यता है कि, जो महिलाएं वट सावित्री व्रत का पालन सच्चे मन से करती हैं, तो व्रत के पुण्य प्रभाव से उनके पति की आयु की रक्षा तथा वृद्धि होती है। अतः सनातन काल से ही भारतीय महिलाएं अपने पति की दीर्घायु और सुखद वैवाहिक जीवन के लिए व्रत-उपवास का पालन करती रही हैं।
वटसावित्री का व्रत मुख्यतः सौभाग्यवती महिलाएं करती है, परंतु आधुनिक काल मे कुंवारी, विवाहित तथा सुपुत्रा सभी महिलाएं यह व्रत करनें लगी है।
हिन्दू धर्म मे मतांतर से ज्येष्ठ मास की अमावस्या या ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को यह व्रत किया जाता है । मुख्यतः उत्तर भारत मे यह पर्व ज्येष्ठ मास की कृष्ण पक्ष की अमावस्या को मनाया जाता है, जबकि महाराष्ट्र, गुजरात तथा दक्षिण भारत में यह पर्व ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को मनाया जाता है ।
निर्णयामृतादि के अनुसार यह वटसावित्री का व्रत ज्येष्ठ मास की कृष्ण पक्ष की अमावस्या को करने का विधान है। सन् 2021 मे यह व्रत 9 जून, बुधवार के दिन मनाया जायेगा ।
तिथियों में भिन्नता होते हुए भी व्रत का उद्देश्य एक ही है, “सौभाग्य की वृद्धि और पतिव्रत के संस्कारों को मानना-उसका पालन करना”। वटसावित्री व्रत को मनाये जाने के दो विभिन्न मत हैं, उनमे एक मत के अनुसार, ज्येष्ठ मास की त्रयोदशी से अमावस्या तक तीन दिनों तक व्रत रखा जाता हैं। दूसरे मत के अनुसार शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी से पूर्णिमा तक यह व्रत किया जाता है। विष्णु उपासक इस व्रत को पूर्णिमा को करना ज्यादा हितकर मानते हैं।
परंतु स्कन्दपुराण व भविष्य पुराण के अनुसार वट सावित्री व्रत ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को किया जाता है । जोकि इस वर्ष 24 जून को है। ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि से यह पर्व शुरू हो जाता है । क्योकि कथा के अनुसार सावित्री ने पूर्णिमा से तीन दिन पहले ही व्रत शुरू कर दिया था।


(वर्तमान काल मे मुख्यतः अमावस्या को ही इस व्रत का नियोजन होता है।)
इसमें सत्यवान, सावित्री तथा यमराज की पूजा की जाती है। इस व्रत को रखने वाली महिलाओं का सुहाग अटल रहता है। ऐसी मान्यता है कि सावित्री ने इसी व्रत के प्रभाव से अपने मृत पति सत्यवान को धर्मराज से भी जीत लिया था।
पूजा/व्रत की प्रथम विधि:-
इस व्रत के तीन दिन पूर्व ( त्रयोदशी तिथि को ) एक लकड़ी के पाटे पर, या बांस की टोकरी मे लाल कपड़ा बिछा कर प्रतीक रूप में शुद्ध मिट्टी से ब्रह्म जी की प्रतिमा, और इनके बाईंं ओर सावित्री, सत्यवान तथा भैंसे पर सवार यमराज की प्रतिमा बना कर स्थापित करनी चाहिए । (वर्तमान काल मे अमावस्या को ही इस पूजा/व्रत की शुरुआत या नियोजन होता है।)

अतः व्रत के दिन प्रात: काल वट वृक्ष की एक डाल लाकर किसी मिट्टी के गमले में लगाएं तथा प्रतिमाओं को उसी गमले की छाया में रख कर उनका पूजन जल, चंदन, रोली, अक्षत पुष्प, फल धूप-दीप आदि से करे ।

या फिर व्रत के दिन इस टोकरी को प्रतिमाओं के साथ बरगद के वृक्ष के नीचे रखकर उनका पूजन जल, चंदन, रोली, अक्षत पुष्प, फल धूप-दीप आदि से करे ।
पूजन करने के उपरांत निम्नलिखित दो मंत्रो का जाप किया जा सकता है ।

मंत्र:-
      ।। सती सावित्राय नम: ।।
      ।। यम धर्मराजाय नम: ।।


मंत्र का जप एक माला करें। फिर कच्चे सूत या मौली को बरगद वृक्ष की डाली में बांधने के उपरांत वृक्ष के गिर्द सात फेरे लेकर सावित्री-सत्यवान कथा करे।

पूजन समाप्त होने के बाद वस्त्र, फल आदि का बांस की टोकरी या पत्तों में रखकर दान करना चाहिए और चने का प्रसाद बांटना चाहिए ।

दूसरी पूजा विधि:-
वट सावित्री व्रत पूजन विधि में अपने-२ क्षेत्र के अनुसार कुछ-कुछ अंतर पाया जाता है। प्रायः सभी भक्त अपने-अपने परम्परा के अनुसार ही वट सावित्री व्रत पूजा करते हैं।
एक अन्य पूजा विधि के अनुसार इस दिन महिलाएँ सुबह स्नान कर नए वस्त्र पहनकर, सोलह श्रृंगार करती हैं। इस दिन निराहार रहते हुए सुहागिन महिलाएं वट वृक्ष में कच्चा सूत लपेटते हुए परिक्रमा करती हैं। वट पूजा के समय फल, मिठाई, पूरी, पुआ भींगा हुआ चना और पंखा चढ़ाती हैं।
उसके बाद सत्यवान व सावित्री की कथा सुनती हैं। पुनः सावित्री की तरह वट के पत्ते को सिर के पीछे लगाकर घर पहुंचती हैं। इसके बाद पति को पंखा झलती है, तथा जल पिलाकर व्रत खोलती हैं।
विशेष रूप में इस पूजन में स्त्रियाँ चौबीस बरगद फल (आटे या गुड़ के) और चौबीस पूरियाँ अपने आँचल में रखकर बारह पूरियां को बारह बरगद वट वृक्ष में चढ़ा देती हैं। (बारह वृक्षों की जगह एक वृक्ष भी मान्य है ।) तत्पश्चात वृक्ष में एक लोटा जल चढ़ाकर हल्दी-रोली लगाकर फल-फूल, धूप-दीप से पूजन करती हैं। कच्चे सूत को हाथ में लेकर वे वृक्ष की बारह परिक्रमा करती हैं। हर परिक्रमा पर एक चना वृक्ष में चढ़ाती जाती हैं। और सूत तने पर लपेटती जाती हैं।
परिक्रमा के पूरी होने के बाद सत्यवान व सावित्री की कथा सुनती हैं। उसके बाद बारह कच्चे धागा वाली एक माला वृक्ष पर चढ़ाती हैं और एक को अपने गले में डालती हैं। पुनः छः बार माला को वृक्ष से बदलती हैं, बाद में एक माला चढ़ी रहने देती हैं और एक स्वयं पहन लेती हैं। जब पूजा समाप्त हो जाती है तब स्त्रियाँ ग्यारह चने व वृक्ष के फूल की कली (वृक्ष की लाल रंग की कली) तोड़कर जल से निगलती हैं।
और इस तरह व्रत खोलती हैं।
इसके पीछे यह मिथक है कि सत्यवान जब तक मरणावस्था में थे तब तक सावित्री को अपनी कोई सुध नहीं थी लेकिन जैसे ही यमराज ने सत्यवान को जीवित कर दिए तब सावित्री ने अपने पति सत्यवान को जल पिलाकर स्वयं वटवृक्ष की कली खाकर जल ग्रहण की थी।

वटसावित्री व्रत की कथा:-
भद्र देश के राजा अश्वपति की पुत्री रुप में गुण सम्पन्न सावित्री का जन्म हुआ।  राजकन्या ने द्युत्मसेन के पुत्र सत्यवान की कीर्ति सुनकर उन्हें पतिरुप में वरण कर लिया।  इधर यह बात जब ऋषिराज नारद को ज्ञात हुई तो वे अश्वपति से जाकर कहने लगे- आपकी कन्या ने वर खोजने में भारी भूल कि है, सत्यवान गुणवान तथा धर्मात्मा है, परन्तु उनकी अल्पायु है, और एक वर्ष के बाद ही उसकी मृ्त्यु हो जाएगी।
नारद जी की यह बात सुनते ही राजा अश्वपति का चेहरा विवर्ण हो गया,
“वृथा न होहिं देव ऋषि बानी”
ऎसा विचार करके उन्होने अपनी पुत्री को समझाया की ऎसे अल्पायु व्यक्ति के साथ विवाह करना उचित नहीं है, इसलिये अन्य कोई वर चुन लो।
इस पर सावित्री बोली पिताजी- आर्य कन्याएं अपने पति का एक बार ही वरण करती है, राजा एक बार ही आज्ञा देता है, पंडित एक बार ही प्रतिज्ञा करते है,
तथा कन्यादान भी एक ही बार किया जाता है। अब चाहे जो हो, मैं सत्यवान को ही वर रुप में स्वीकार करूंगी। सावित्री ने नारद से सत्यवान की मृ्त्यु का समय मालूम कर लिया था।
अन्ततोगत्वा उन दोनो को पाणिग्रहण संस्कार में बांधा गया। वह ससुराल पहुंचते ही सास-ससुर की सेवा में रत हो गई। कुछ समय के पश्चात ससुर का बल क्षीण होता देख शत्रुओं ने उनका राज्य छिन लिया।
नारद का वचन सावित्री को दिन -प्रतिदिन अधीर करने लगा।  उसने जब जाना की पति की मृ्त्यु का दिन नजदीक आ गया है। तब तीन दिन पूर्व से ही उपवास शुरु कर दिया।
नारद द्वारा कथित निश्चित तिथि पर पितरों का पूजन किया।  नित्य की भांति उस दिन भी सत्यवान अपने समय पर लकडी काटने के लिये चला गया, तो सावित्री भी सास-ससुर की आज्ञा से अपने पति के साथ जंगल में चलने के लिए तैयार हो गई़।
सत्यवान वन में पहुंचकर लकडी काटने के लिये वृ्क्ष पर चढ गया, वृक्ष पर चढते ही सत्यवान के सिर में असहनीय पीडा होने लगी, वह व्याकुल हो गया और वृ्क्ष से नीचे उतर गया। सावित्री अपना भविष्य समझ गई. तथा अपनी गोद का सिरहाना बनाकर अपने पति को लिटा लिया। उसी समय दक्षिण दिशा से अत्यन्त प्रभावशाली महिषारुढ यमराज को आते देखा।
धर्मराज सत्यवान के जीवन को जब लेकर चल दिए, तो सावित्री भी उनके पीछे-पीछे चल पडी। पहले तो यमराज ने उसे देवी-विधान समझाया परन्तु उसकी निष्ठा और पतिपरायणता देख कर उसे वर मांगने के लिये कहा।
सावित्री बोली -मेरे सास-ससुर वनवासी तथा अंधे है. उन्हें आप नेत्र ज्योति प्रदान करें। यमराज ने कहा -ऎसा ही होगा।
जाओ अब लौट जाओ। यमराज की बात सुनकर उसने कहा-भगवान मुझे अपने पतिदेव के पीछे -पीछे चलने में कोई परेशानी नहीं है। पति के पीछे चलना मेरा कर्तव्य है, यह सुनकर उन्होने फिर से उसे एक और वर मांगने के लिये कहा।
सावित्री बोली-हमारे ससुर का राज्य छिन गया है, उसे वे पुन: प्राप्त कर सकें, साथ ही धर्मपरायण बने रहें।
यमराज ने यह वर देकर कहा की अच्छा अब तुम लौट जाओ। परन्तु उसने यमराज के पीछे चलना बन्द नहीं किया। अंत में यमराज को सत्यवान का प्राण छोडना पडा तथा सौभाग्यवती होने के साथ साथ उसे पुत्रवती होने का आशिर्वाद भी दिया।
सावित्री को यह वरदान देकर धर्मराज अन्तर्धान हो गये। इस प्रकार सावित्री उसी वट के वृ्क्ष के नीचे आई, जहां पर उसके पति का मृ्त शरीर पडा था। ईश्वर की अनुकम्पा से उसके शरीर में जीवन का संचार होने लगा तथा सत्यवान उठकर बैठ गये।
दोनों हर्षित होकर अपनी राजधानी की ओर चल पडे। वहां पहुंच कर उन्होने देखा की उनके माता-पिता को नेत्र ज्योति प्राप्त हो गई है, इस प्रकार सावित्री-सत्यवान चिरकाल तक राज्य सुख भोगते रहें।
वट सावित्री व्रत करने और इस कथा को सुनने से उपावसक के वैवाहिक जीवन या जीवन साथी की आयु पर किसी प्रकार का कोई संकट आया भी हो तो टल जाता है।

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