दशा माता

दशामाता का व्रत चैत्र महीने के कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि के दिन किया जाता है। इस वर्ष यह पर्व दिनांक: 6 अप्रैल 2021 दिन मंगलवार को है।दशा माता का व्रत, घर-परिवार के बिगड़े ग्रहों की दशा या परिस्थिति अनुकूल बनी रहे, ऐसी कामना के साथ किया जाता है। दशा माता यानि माँ भगवती की पूजा और व्रत करके महिलायें गले में डोरा पहनती है ताकि परिवार में सुख-समृद्धि, शांति, सौभाग्य और धन संपत्ति बनी रहे। इसे साँपदा माता का डोरा भी कहते हैं।
होली के दस दिन बाद यह व्रत आता है। व्रत मे महिलाएं दशा माता और पीपल की पूजा कर सौभाग्य, ऐश्वर्य, सुख-शांति और आरोग्य की कामना करती हैं। महिलाएं शुभ मुहूर्त मे पीला धागा गले में धारण करती हैं।
दशा ख़राब हो तो अनेक प्रकार की बाधाएँ उत्पन्न हो जाती हैं, पूरी कोशिश करने पर भी कोई काम पूरा नहीं होता। ऐसे ही संकटों से उबारने वाला है दशा माता का व्रत। इस व्रत को जो व्यक्ति भक्ति-भाव से करता है, उसके घर से दु:ख और दरिद्रता दूर हो जाती है, और घर परिवार की दशा सही बनी रहती हैं।

पूजा का शुभ मुहूर्त
चर चौघडिय़ा प्रात:काल 09:23 से प्रात:काल 10:56 बजे तक। लाभ चौघडि़या प्रात:काल 10:56 से दोपहर 12:29 बजे तक। अमृत चौघडि़या दोपहर 12:29 से दोपहर 02:03 बजे तक।

दशा माता पूजन विधि :
दशा माता पूजा सामग्री – दशा माता पूजा सामग्री में रोली (कुंकुम), मौली, सुपारी, चावल, दीप, नैवेद्य, धुप, काजल, गेहूँ, धूप, दीप और मेहंदी आदि का इंतजाम कर लें। साथ में सफेद धागा लें और उसमे गांठ बना लें। फिर उसे हल्दी में रंग लें। इस धागे को दशमाता की बेल कहते हैं।
दशा माता का व्रत करने वाली सुहागिन महिलाएं शादी का जोड़ा या नये लाल वस्त्र पहनती है और पूरा श्रृंगार करके यह पूजा करती हैं। इस पावन दिन शुभ मुहूर्त में, कच्चे सूत के 10 तार के 10 गांठ वाले डोर से पीपल की पूजा करती हैं। विधि-विधान से इस पूजा के पश्चात् व्रती महिलाएं नल-दमयंती की कथा सुनती हैं।
सुबह स्नान आदि से निवृत होकर व्रत का संकल्प लेते हैं ।
इस व्रत मे दशा माता की मूरत या चित्र की पूजा की जाती है। मूर्ति/चित्र नहीं हो तो नागरबेल के पान के पत्ते (पूजा में काम आने वाला डंडी और नोक वाला पत्ता) पर चन्दन से दशा माता बनाकर पूजा की जा सकती है।
यह पूजा भगवान विष्णु के स्वरूप पीपल के पेड़ के पास या घर पर कर सकते हैं।
दशा माता के पास कुंकुम, काजल और मेहंदी की दस-दस बिंदी लगाते हैं। भोग के रूप में नैवेद्य लापसी, चावल आदि चढ़ाया जाता है और सूत का धागा बांधकर सुख सौभाग्य व मंगल की कामना करते हुए पीपल के पेड़ की परिक्रमा की जाती है। पीपल को चुनरी ओढ़ाई जाती है।
दस दस गेहूँ की दस ढ़ेरी पास में सजाई जाती है। लडडू, हलवे, लापसी या मीठे रोठ आदि का भोग दस ढेरियों के पास रखा जाता है। दस गाँठों का डोरा पूजा में रखा जाता है।
दशा माता और दस गाँठ वाले डोरे का पूजन अक्षत, पुष्प आदि से करते हैं।
धूप दीप जलाते हैं। पिछले साल का डोरा भी पास में रखते हैं।
इसके पश्चात दशा माता की आरती गाई जाती है।
इसके बाद नल दमयंती वाली दशा माता की कथा कहते और सुनते हैं। कहानी पीपल के पेड़ की पूजा के बाद भी कही सुनी जा सकती है। कुछ लोग दस कहानियाँ सुनते हैं।
पूजा करने और कथा सुनने के बाद महिलाएं दशा माता का पूजित नया डोरे को गले में बांधती हैं। इस धागे को व्रती महिलाएं पूरे साल धारण करती हैं।
इसके बाद गेहूं, भोग और पुराना डोरा लेकर पीपल के पेड़ के पास जाते हैं। गेहूं और पिछले साल का डोरा पीपल की जड़ के पास मिट्टी में दबा दिया जाता है या पीपल में बांधा जात है। पीपल के वृक्ष की पूजा की जाती है।
कहीं कहीं दशा माता के पूजन के बाद पथवारी पूजन भी किया जाता है।
पीपल के पेड़ की थोड़ी सी छाल खुरच कर गेहूं के दानों के साथ घर लाते हैं। इसे साफ कपड़े में लपेट कर तिजोरी या अलमारी में रखते हैं। पीपल की छाल को धन का प्रतीक माना जाता है। माना जाता है की पीपल की छाल इस प्रकार घर में रखने से सुख समृद्धि बनी रहती है।
व्रत के सकल्प की पूर्ति के रूप में दस पूरियां, दस सिक्के और दस चम्मच हलवा ब्राह्मणी या घर की बुजुर्ग महिला के पैर छूकर उन्हें दिया जाता है।
दशामाता की पूजा विधिपूर्वक करने से माता की कृपा सदैव बनी रहती है। घर में सुख-शांति और समृद्धि आती है।

दशा माता व्रत के नियम:
दशामाता का व्रत जीवन में जब तक शरीर साथ दे, तब तक किया जाता है और इसका उद्यापन नहीं होता है। दशा माता की पूजा पीपल के पेड़ की छाँव में करना शुभ माना जाता है। घर में इस व्रत के दिन विशेष रूप से साफ-सफाई की जाती है और अनावश्यक अटाला, कचरा, टूटा-फूटा सामान बाहर फेंक दें। साथ ही सफाई से जुड़े समान यानी झाड़ू आदि खरीदने की परंपरा है।
इस दिन घर का पैसा खर्च नहीं करना चाहिए। दशामाता पूजा के पूरे दिन बाजार से कोई वस्तु ना खरीदें। यथासंभव जरूरत की वस्तुएं एक दिन पूर्व ही खरीदकर रख लें। दशामाता पूजन के दिन किसी को पैसा उधार भी ना दें। इस दिन अपने घर की कोई वस्तु भी किसी को नहीं देना चाहिए और ना ही किसी से कोई वस्तु या पैसा मांगना चाहिए।
दशामाता व्रत करने वाली महिलाएं दिन भर में मात्र एक बार अन्न का सेवन करती हैं। इस व्रत में नमक का सेवन नहीं किया जाता है। मान्यता है कि दशामाता व्रत को विधि-विधान, सच्चे मन, भक्ति भाव से करने पर, एक साल के भीतर जीवन से जुड़े दु:ख और समस्याएं दूर हो जाती हैं।

दशा माता का डोरा कब खोलते हैं?
दशा माता का डोरा साल भर गले में पहना जाता है। लेकिन यदि दशा माता का डोरा साल भर नहीं पहन सकते हैं तो वैशाख महीने के शुक्ल पक्ष में किसी अच्छे दिन खोलकर रखा जा सकता है। उस दिन व्रत करना चाहिए और सांपदा माता की कहानी सुननी चाहिए।
इतना भी नहीं पहनना चाहें तो जिस दिन पहनते हैं उसी दिन डोरे को रात के समय उतार कर पूजा के स्थान पर रख दें और अगले वर्ष पूजा के बाद पीपल की जड़ में दबा दें।

दशामाता कथा :
दशामाता के कोप से बचाएगी यह पौराणिक कथा
दशामाता व्रत की प्रामाणिक कथा के अनुसार प्राचीन समय में राजा नल और दमयंती रानी सुखपूर्वक राज्य करते थे। उनके दो पु‍त्र थे। उनके राज्य में प्रजा सुखी और संपन्न थी। एक दिन की बात है कि उस दिन होली दसा थी। एक ब्राह्मणी राजमहल में आई और रानी से कहा- दशा का डोरा ले लो। बीच में दासी बोली- हां रानी साहिबा, आज के दिन सभी सुहागिन महिलाएं दशा माता की पूजन और व्रत करती हैं तथा इस डोरे की पूजा करके गले में बांधती हैं जिससे अपने घर में सुख-समृद्धि आती है। अत: रानी ने ब्राह्मणी से डोरा ले लिया और विधि अनुसार पूजन करके गले में बांध दिया।
कुछ दिनों के बाद राजा नल ने दमयंती के गले में डोरा बंधा हुआ देखा। राजा ने पूछा- इतने सोने के गहने पहनने के बाद भी आपने यह डोरा क्यों पहना? रानी कुछ कहती, इसके पहले ही राजा ने डोरे को तोड़कर जमीन पर फेंक दिया। रानी ने उस डोरे को जमीन से उठा लिया और राजा से कहा- यह तो दशामाता का डोरा था, आपने उनका अपमान करके अच्‍छा नहीं किया।
जब रात्रि में राजा सो रहे थे, तब दशामाता स्वप्न में बुढ़िया के रूप में आई और राजा से कहा- हे राजा, तेरी अच्छी दशा जा रही है और बुरी दशा आ रही है। तूने मेरा अपमान करने अच्‍छा नहीं किया। ऐसा कहकर बुढ़िया (दशा माता) अंतर्ध्यान हो गई।

अब जैसे-तैसे दिन बीतते गए, वैसे-वैसे कुछ ही दिनों में राजा के ठाठ-बाट, हाथी-घोड़े, लाव-लश्कर, धन-धान्य, सुख-शांति सब कुछ नष्ट होने लगे। अब तो भूखे मरने का समय तक आ गया। एक दिन राजा ने दमयंती से कहा- तुम अपने दोनों बच्चों को लेकर अपने मायके चली जाओ। रानी ने कहा- मैं आपको छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी। जिस प्रकार आप रहेंगे, उसी प्रकार मैं भी आपके साथ रहूंगी। तब राजा ने कहा- अपने देश को छोड़कर दूसरे देश में चलें। वहां जो भी काम मिल जाएगा, वही काम कर लेंगे। इस प्रकार नल-दमयंती अपने देश को छोड़कर चल दिए।
चलते-चलते रास्ते में भील राजा का महल दिखाई दिया। वहां राजा ने अपने दोनों बच्चों को अमानत के तौर पर छोड़ दिया। आगे चले तो रास्ते में राजा के मित्र का गांव आया। राजा ने रानी से कहा- चलो, हमारे मित्र के घर चलें। मित्र के घर पहुंचने पर उनका खूब आदर-सत्कार हुआ और पकवान बनाकर भोजन कराया। मित्र ने अपने शयन कक्ष में सुलाया। उसी कमरे में मोर की आकृति की खूंटी पर मित्र की पत्नी का हीरों जड़ा कीमती हार टंगा था। मध्यरात्रि में रानी की नींद खुली तो उन्होंने देखा कि वह बेजान खूंटी हार को निगल रही है। यह देखकर रानी ने तुरंत राजा को जगाकर दिखाया और दोनों ने विचार किया कि सुबह होने पर मित्र के पूछने पर क्या जवाब देंगे? अत: यहां से इसी समय चले जाना चाहिए। राजा-रानी दोनों रात्रि को ही वहां से चल दिए।
सुबह होने पर मित्र की पत्नी ने खूंटी पर अपना हार देखा। हार वहां नहीं था। तब उसने अपने पति से कहा- तुम्हारे मित्र कैसे हैं, जो मेरा हार चुराकर रात्रि में ही भाग गए हैं। मित्र ने अपनी पत्नी को समझाया कि मेरा मित्र कदापि ऐसा नहीं कर सकता, धीरज रखो, कृपया उसे चोर मत कहो।
आगे चलने पर राजा नल की बहन का गांव आया। राजा ने बहन के घर खबर पहुंचाई कि तुम्हारे भाई-भौजाई आए हुए हैं। खबर देने वाले से बहन ने पूछा- उनके हाल-चाल कैसे हैं? वह बोला- दोनों अकेले हैं, पैदल ही आए हैं तथा वे दुखी हाल में हैं। इतनी बात सुनकर बहन थाली में कांदा-रोटी रखकर भैया-भाभी से मिलने आई। राजा ने तो अपने हिस्से का खा लिया, परंतु रानी ने जमीन में गाड़ दिया।
चलते-चलते एक नदी मिली। राजा ने नदी में से मछलियां निकालकर रानी से कहा- तुम इन मछलियों को भुंजो, मैं गांव में से परोसा लेकर आता हूं। गांव का नगर सेठ सभी लोगों को भोजन करा रहा था। राजा गांव में गया और परोसा लेकर वहां से चला तो रास्ते में चील ने झपट्टा मारा तो सारा भोजन नीचे गिर गया। राजा ने सोचा कि रानी विचार करेगी कि राजा तो भोजन करके आ गया और मेरे लिए कुछ भी नहीं लाया। उधर रानी मछलियां भूंजने लगीं तो दुर्भाग्य से सभी मछलियां जीवित होकर नदी में चली गईं। रानी उदास होकर सोचने लगी कि राजा पूछेंगे और सोचेंगे कि सारी मछलियां खुद खा गईं। जब राजा आए तो मन ही मन समझ गए और वहां से आगे चल दिए।
चलते-चलते रानी के मायके का गांव आया। राजा ने कहा- तुम अपने मायके चली जाओ, वहां दासी का कोई भी काम कर लेना। मैं इसी गांव में कहीं नौकर हो जाऊंगा। इस प्रकार रानी महल में दासी का काम करने लगी और राजा तेली के घाने पर काम करने लगा। दोनों को काम करते बहुत दिन हो गए। जब होली दसा का दिन आया, तब सभी रानियों ने सिर धोकर स्नान किया। दासी ने भी स्नान किया। दासी ने रानियों का सिर गूंथा तो राजमाता ने कहा- मैं भी तेरा सिर गूंथ दूं। ऐसा कहकर राजमाता जब दासी का सिर गूंथ ही रही थी, तब उन्होंने दासी के सिर में पद्म देखा। यह देखकर राजमाता की आंखें भर आईं और उनकी आंखों से आंसू की बूंदें गिरीं। आंसू जब दासी की पीठ पर गिरे तो दासी ने पूछा- आप क्यों रो रही हैं? राजमाता ने कहा- तेरे जैसी मेरी भी बेटी है जिसके सिर में भी पद्म था, तेरे सिर में भी पद्म है। यह देखकर मुझे उसकी याद आ गई। तब दासी ने कहा- मैं ही आपकी बेटी हूं। दशा माता के कोप से मेरे बुरे दिन चल रहे है इसलिए यहां चली आई। माता ने कहा- बेटी, तूने यह बात हमसे क्यों छिपाई? दासी ने कहा- मां, मैं सब कुछ बता देती तो मेरे बुरे दिन नहीं कटते। आज मैं दशा माता का व्रत करूंगी तथा उनसे गलती की क्षमा-याचना करूंगी।
अब तो राजमाता ने बेटी से पूछा- हमारे जमाई राजा कहां हैं? बेटी बोली- वे इसी गांव में किसी तेली के घर काम कर रहे हैं। अब गांव में उनकी खोज कराई गई और उन्हें महल में लेकर आए। जमाई राजा को स्नान कराया, नए वस्त्र पहनाए और पकवान बनवाकर उन्हें भोजन कराया गया।
अब दशामाता के आशीर्वाद से राजा नल और दमयंती के अच्छे दिन लौट आए। कुछ दिन वहीं बिताने के बाद अपने राज्य जाने को कहा। दमयंती के पिता ने खूब सारा धन, लाव-लश्कर, हाथी-घोड़े आदि देकर बेटी-जमाई को बिदा किया।
रास्ते में वही जगह आई, जहां रानी में मछलियों को भूना था और राजा के हाथ से चील के झपट्टा मारने से भोजन जमीन पर आ गिरा था। तब राजा ने कहा- तुमने सोचा होगा कि मैंने अकेले भोजन कर लिया होगा, परंतु चील ने झपट्टा मारकर गिरा दिया था। अब रानी ने कहा- आपने सोचा होगा कि मैंने मछलियां भूनकर अकेले खा ली होंगी, परंतु वे तो जीवित होकर नदी में चली गई थीं।
चलते-चलते अब राजा की बहन का गांव आया। राजा ने बहन के यहां खबर भेजी। खबर देने वाले से पूछा कि उनके हालचाल कैसे हैं? उसने बताया कि वे बहुत अच्छी दशा में हैं। उनके साथ हाथी-घोड़े लाव-लश्कर हैं। यह सुनकर राजा की बहन मोतियों की थाल सजाकर लाई। तभी दमयंती ने धरती माता से प्रार्थना की और कहा- मां आज मेरी अमानत मुझे वापस दे दो। यह कहकर उस जगह को खोदा, जहां कांदा-रोटी गाड़ दिया था। खोदने पर रोटी तो सोने की और कांदा चांदी का हो गया। ये दोनों चीजें बहन की थाली में डाल दी और आगे चलने की तैयारी करने लगे।
वहां से चलकर राजा अपने मित्र के घर पहुंचे। मित्र ने उनका पहले के समान ही खूब आदर-सत्कार और सम्मान किया। रात्रि विश्राम के लिए उन्हें उसी शयन कक्ष में सुलाया। मोरनी वाली खूंटी के हार निगल जाने वाली बात से नींद नहीं आई। आधी रात के समय वही मोरनी वाली खूंटी हार उगलने लगी तो राजा ने अपने मित्र को जगाया तथा रानी ने मित्र की पत्नी को जगाकर दिखाया। आपका हार तो इसने निगल लिया था। आपने सोचा होगा कि हार हमने चुराया है।
दूसरे दिन प्रात:काल नित्य कर्म से निपटकर वहां से वे चल दिए। वे भील राजा के यहां पहुंचे और अपने पुत्रों को मांगा तो भील राजा ने देने से मना कर दिया। गांव के लोगों ने उन बच्चों को वापस दिलाया। नल-दमयंती अपने बच्चों को लेकर अपनी राजधानी के निकट पहुंचे, तो नगरवासियों ने लाव-लश्कर के साथ उन्हें आते हुए देखा।
सभी ने बहुत प्रसन्न होकर उनका स्वागत किया तथा गाजे-बाजे के साथ उन्हें महल पहुंचाया। राजा का पहले जैसा ठाठ-बाट हो गया। राजा नल-दमयंती पर दशा माता ने पहले कोप किया, ऐसी किसी पर मत करना और बाद में जैसी कृपा करी, वैसी सब पर करना।

दशामाता की अन्य कथा:
एक राजा था । उसकी दो रानिया थी । बड़ी रानी के संतान नहीं थी । छोटी रानी के पुत्र था। राजा छोटी रानी और राजकुमार को बहुत प्यार करता था । बड़ी रानी छोटी रानी से ईर्ष्या करने लगी।
बड़ी रानी राजकुमार के प्राण हर लेना चाहती थी। एक दिन राजकुमार खेलता-खेलता बड़ी रानी के चोक में चला गया। बड़ी रानी ने राजकुमार के गले मई एक कला साँप डाल दिया । छोटी रानी दशा माता का व्रत करती थी राजकुमार दशा माता का ही दिया हुआ था। दशामाता की कृपा से राजकुमार के गले में साँप बिना नुकसान पहुचाये चला गया ।
दूसरे दिन बड़ी रानी ने लड्डूओ में जहर मिला कर राजकुमार को खाने के लिए दिए । राजकुमार जैसे ही लड्डू खाने लगा तो दशामाता एक दासी का रूप धारण कर आयी और राजकुमार के हाथ से लड्डू छीन लिए ।
बड़ी रानी का यह वार भी खाली गया। रानी को बड़ी चिंता हुई की किसी भी तरह से राजकुमार को मारना हे। तीसरे दिन जब राजकुमार फिर बड़ी रानी के आँगन में खेलने गया तो रानी ने उसे पकड़ कर गहरे कुवे में धकेल दिया। चूंकि कुवा बड़ी रानी के आँगन में बना था इसलिए किसी को भी पता नहीं चला की राजकुमार कहा गया लेकिन जैसे ही बड़ी रानी ने राजकुमार को कुवे में धकेला तो दशामाता ने उसे बीच में ही रोक लिया।
इधर दोपहर हो जाने पर राजकुमार के न लौटने पर राजा व् छोटी रानी को चिंता सताने लगी। दशामाता को भी इस बात की चिंता हुई राजुकमार को उसके माता-पिता के पास किस प्रकार पहुचाया जाये ? राजकुमार को तलाश करने वाले कर्मचारी निराश होकर बैठ गए। राजा व छोटी रानी पुत्र शोक में रोने लगे । तब दशामाता ने भिखारी का रूप धारण किया और राजकुमार को गले से लगाए राजद्वार पर पहुची।
वह राजकुमार को एक वस्त्र में छिपाये हुए भिक्षया मांगने लगी । सिपाहियों ने उसे दुत्कार कर कहा – ‘ तुझे भिक्ष्या के पड़ी हे और यह राजकुमार खो गया हे । सारे लोग दुःख और चिंता से व्याकुल हो रहे हे ।’ इस पर दशामाता बोली – ‘ भाइयो ! पुण्य का प्रभाव बड़ा ही विचित्र होता हे । यदि मुझे भिक्षया मिल जाये तो संभव हे की खोया हुआ राजकुमार तुम लोगो को मिल जाये।’
यह कहकर वह देहरी पर पैर रखने लगी । सिपाहियों ने उन्हें आगे बढ़ने से रोका। उसी समय दशामाता ने बालक का पैर वस्त्र से बहर कर दिया ।सिपाहियों ने समझा की कुँवर उसके हाथो में है इसलिए उसे अंदर जाने दिया।
दशामाता कुँवर को लिए हुए भीतर चली गयी । उसने राजकुमार को चोक में छोड़ दिया और वापस चली गयी, परन्तु रानी ने दशामाता रूपी भिखारिन को देख लिया था । उसने कहा की-‘ खड़ी रहो और कोन हो तुम ? तुमने तीन दिन मेरे बेटे को छिपाकर रखा था। तुमने ऐसा क्यों किया ? तुम्हे मेरे इस प्रश्न का उत्तर देना होगा ।’
दशामाता उसी समय ठहर गयी । उन्होंने बताया की -‘ में तुम्हारे पुत्र की चोरी करने वाली नहीं हूँ। में तो तुम्हारी आरध्या देवी दशामाता हु । में तुम्हे सचेत करने आयी हु की बड़ी रानी तुम से ईर्ष्या रखती हे । वह तुम्हारे पुत्र के प्राण हर लेना चाहती है ।एक बार उसने तुम्हारे पुत्र के गले में कला साँप डाला था । जिसे मैंने भगाया । दूसरे बार उसने इसे विष के लड्डू खाने को दिए थे । जिन्हें मैंने उसके हाथो से छीन लिए थे। इस बार उसने तुम्हारे उसने राजकुमार को अपने आँगन के कुवे में धकेल दिया था और मैंने इस बीच में ही रोक कर रक्ष्या की। इस समय में भिखारिन के वेश में तुम्हे सचेत करने आयी हु ।’ यह सुनकर छोटी रानी दशामाता के पैरो में गिरकर शमा मांगने लगी।
छोटी रानी विनती भाव से बोली – ‘ जैसी कृपा आपने मुझ पर दर्शन देकर की है। में चाहती हु की आप सदैव इस महल में निवास करे । मुझसे जो सेवा पूजा होगी में करुँगी ।’
इस पर दशामाता बोली की – ‘ में किसी घर में नहीं रहती । जो श्रद्धापूर्वक मेरा ध्यान, स्मरण करता हे में उसी के ह्रदय में निवास करती हु । मेने तुम्हे साक्ष्यात दर्शन दिए हे। इसलिए तुम सुहागिनों को बुला कर उन्हें यथाविधि आदर -सत्कार के साथ भोजन कराओ और नगर में ढिंडोरा पिटवा दो की सभी लोग मेरा डोरा ले और व्रत करे ।’
इतना कहकर दशामाता अंतर्ध्यान हो गयी। रानी ने अपने राज्य की सौभाग्यवती स्त्रियो को निमंत्रण देकर बुलाया और उबटन से लेकर शिरोभूषण शंगार कर उनकी यथा विधि सेवा कर भोजन करवाया और दक्षिणा में गहने आदि देकर विदा किया। रानी ने अपने राज्य में ढिंडोरा पिटवा दिया की अब से सब लोग दशामाता का डोरा लिया करे।

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