गीता की महिमा कहना अर्थात ईश्वर की महिमा कहने की तरह ही है अर्थात जो कुछ कहो सब कुछ कम ही है, जितनी महिमा गाओ उतना कम है । भगवान की तरह गीता की भी अपनी एक अलग ही महिमा है, गीता कपड़े में बाँधकर केवल घर में रखने मात्र के लिए नहीं है, इसके एक-एक श्लोक की महिमा है, एक एक श्लोक स्वयं श्री हरि का स्वरूप ही है, यह कहा जाय कि स्वयं श्री हरि ही हैं तो भी अतिशयोक्ति न होगी ।। इसका अध्ययन कर इसे हृदय में धारण करें, इसमें ऐसे बहुत से श्लोक हैं जिनके आधे के बराबर भी यदि हमारा जीवन वास्तविक हो जाये तो जीवन में परमलाभ हो।

गीता भगवान की वाणी है — वैद्य अगर कोई दवाई बताता है और अगर मरीज उस दवाई को ग्रहण ना करे तो मरीज ठीक नही होगा उसी प्रकार गीता भी भगवान की वाणी है, गीता को भी हमे जीवन मे उतारना चाहिये, यह भवरोग की औषधि है, दवा है भवरोग की, संसार सागर से पर जाने की औषधि है, जो वैद्य रूपी ईश्वर ने हमें दिया है, औषधि का सेवन कर अपने भवरोग व मानस रोग के संताप को नष्ट करें।

अर्जुन मोह ममता के जाल में उलझकर अपने युद्ध करने के कर्तव्य को भुल बैठा था, उस भयानक परिस्थिति में भगवान ने अर्जुन को गीता ज्ञान देकर अर्जुन के मोह का नाश किया और अर्जुन को जागृति प्राप्त हुई, अर्जुन को अपने कर्तव्य का बोध हुआ, इसी प्रकार मनुष्य भी संसारिक मोह ममता में उलझकर अपने आत्म स्वरुप को और भगवान को भूल बैठा है, ईश्वर से सम्बंध और वास्तविक कर्तव्य को भूल बैठा है, गीता उस वास्तविक कर्तव्य का ज्ञान कराती है।

अतः जिन्हें भी यह शंका हो कि गीता पढ़ने से तो बेटा घर द्वार छोड़कर जंगल की ओर चल देगा तो उन्हें ऐसी शंकाएँ त्यागकर गीता का समुचित अध्ययन करना और कराना चाहिए, अर्जुन को भगवान ने वास्तविक कर्तव्य से अवगत करा दिया, गीता किसी भी व्यक्ति को उसके वास्तविक कर्तव्य से अवगत करा देती है, गीता सन्यास का वास्तविक स्वरूप समझा मनुष्य का कल्याण करती है।

अर्जुन ने गीता के अंतिम अध्याय में कहा कि:
“नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धवा”- अर्थात् हे कृष्ण ,मेरा मोह नष्ट हो गया ओर मुझे स्मृति प्राप्त हो गयी।

अतः गीता मोह को नष्ट कर जीव को उसके वास्तविक स्वरूप की स्मृति कराती है और आत्म स्वरूप की स्मृति होते ही कर्तव्य-अकर्तव्य की पहचान हो जाती है

सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः।
पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्।

यह भगवद्गीता गीतोपनिषद् है, समस्त उपनिषद गाय के तुल्य हैं, दूध दुहनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण गाय को दुह रहे हैं, अर्जुन बछड़े के समान है, और सारे विद्वान तथा शुद्ध भक्त भगवद्गीता के अमृतमय् दूध का पान करने वाले हैं।

मलनिर्मोचनं पुंसां जलस्नानं दिने दिने ।
सकृद् गीताम्भसि स्नानं संसारमलनाशनम्।
अर्थात् हर रोज जल से किया हुआ स्नान मनुष्यों का मैल दूर करता है किन्तु गीतारूपी जल में एक बार किया हुआ स्नान भी संसाररूपी मैल का नाश करता है।

गीताशास्त्रस्य जानाति पठनं नैव पाठनम् ।
परस्मान्न श्रुतं ज्ञानं श्रद्धा न भावना।।
स एव मानुषे लोके पुरुषो विड्वराहकः ।
यस्माद् गीतां न जानाति नाधमस्तत्परो जनः
अर्थात् जो मनुष्य स्वयं गीता शास्त्र का पठन-पाठन नहीं जानता है, जिसने अन्य लोगों से वह नहीं सुना है, स्वयं को उसका ज्ञान नहीं है, जिसको उस पर श्रद्धा नहीं है, भावना भी नहीं है, वह मनुष्य लोक में भटकते हुए शूकर जैसा ही है,उससे अधिक नीच दूसरा कोई मनुष्य नहीं है, क्योंकि वह गीता को नहीं जानता है।

गीता मे ह्रदयं पार्थ गीता में सारमुत्तमम्, गीता में ज्ञानमत्यौग्रं गीता मे ज्ञानमव्ययम्। गीता मे चोत्तमं स्थानं गीता मे परमं पदम्, गीता मे परमं गुह्यां गीता मे परमो गुरुः
भगवान् श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि गीता मेरा ह्रदय है, गीता मेरा उत्तम सार है, गीता मेरा अति उग्र ज्ञान हैं, गीता मेरा अविनाशी ज्ञान है, गीता मेरा श्रेष्ठ निवासस्थान है, गीता मेरा परम पद हैं, गीता मेरा परम रहस्य है, गीता मेरा परम गुरु है।

सच्चे हृदय से गीता का अध्ययन करनेवाले और उसके अनुसार चलनेवाले मनुष्य को गीता नीचे से नीचे स्थिति से उठाकर देवताओं से भी ऊँची स्थिति में पहुँचाने में सक्षम है।

।। जय भगवद्गीते ।। जय श्री कृष्ण ।। श्री अच्युताय नमः ।।

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