वेदोsखिलोधर्ममूलं

वेद एक ऐसा अपौरुषेय ग्रंथ है जिसमें अनंत काल से चल रही इस सृष्टि को ज्ञान, कर्म, संस्कार इत्यादि जीवनोपयोगी, मोक्षोपयोगी, विषयों का विस्तृत वर्णन किया गया है। इस ग्रंथ को अपौरुषेय कहने का तात्पर्य यह है, कि ये उस अनादि ब्रह्म के द्वारा निःसृत हुआ है, जो देवता, मानव या असुरों में से कोई नही। वो परब्रह्म सम्पूर्ण सृष्टि में इस प्रकार से घुला हुआ है जैसे शर्बत में शक्कर। वो समस्त संसार का पालन, पोषण और संहार नित्य प्रति करता रहता है, उसी ब्रह्म के मार्गदर्शन में वेद जैसे पवित्र मंत्रों का अध्ययन करने का या जानने का परम सौभाग्य प्राप्त होता है। परमात्मा के कृपा बिना आप वेद का न तो अध्ययन कर सकते है और ना ही जान सकते है|

वेदो नारायणः साक्षात: – साक्षात् परब्रह्म परमात्मा ही वेद है, उस परमात्मा को जान लेना ही उनके स्वरूप को जानना है और उस परमात्मा को जानकर स्वयं की पहचान कर लेना वे वेद ज्ञान है। इस ज्ञान परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखने हेतु समय-समय पर ईश्वरीय हस्तक्षेप भी होता रहता है। वेदों को आर्यावर्त में विशेष स्थान दिया गया है, जिसमें गुरुकुलीय परम्परा को सर्वथा अग्रणी रखा गया है। इस गुरुकुलीय परंपरा के तहत श्रुति परंपरा से वेदों का अध्ययन करवाया जाता था। अर्थात् सुनकर जिसे याद कर लिया जाए उसे श्रुति कहते हैं। कालांतर में वेद ज्ञान के हो रहे ह्रास से भगवान महादेव ने रावण को चारों वेदों को लयबद्ध करके सिखाया था, महर्षि वशिष्ठ ने भगवान श्री रामचन्द्र जी को वेदों से मानवजाति के कल्याणार्थ दिव्य योग का दुर्लभ ज्ञान प्रदान किया जिसे आज योगवाशिष्ठ के रूप में जाना जाता है। माता सती अनुसूया ने वैदिक रीति से पतिव्रत धर्म का निष्ठा से पालन किया था, जिसकी शक्ति की परीक्षा लेने गए महादेव,नारायण,और ब्रह्मदेव दूध पीते बालक के समान कर दिया।
युगांतर पश्चात उसी योग को भगवान श्री कृष्ण ने गीता के रूप में अर्जुन को दिया , महर्षि वेद व्यास जी ने जब आने वाले समय के विषय मे अध्ययन किया तो उनको यह आभास हुआ कि कलियुग में मनुष्यों की स्मृति अल्पमात्रिक रहेगी ,मानव संस्कार विहीन होते जाएंगे ,पशुवत भरण पोषण करने मात्र की ही शिक्षा दी जाएगी,ब्राह्मणों का उपहास किया जाएगा ,वेद के अस्तित्व को मिटाने का प्रयास किया जाएगा, आने वाले समय की स्थिति का ऐसा आंकलन करने के पश्चात भगवान वेद व्यास जी ने वेदों का अनेक भाग कर लिपिबद्ध किया।
महर्षि बादरायण ने उन मंत्रों के अंश निचोड़कर ब्रह्मसूत्र के 555 सूत्रों की रचना करके मानवों पर बहुत बड़ा उपकार किया है, कलियुग में जब वेद विलुप्त होने लगे तब उन दिव्य ज्ञान को धारण करने भगवान शिव ने शंकराचार्य का अवतार लेकर सम्पूर्ण वेदों का अध्ययन कर ज्ञान को विलुप्त होने से बचाया,जगद्गुरु शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र का भाष्य कर वेद विदित मार्गों पर ही चलने का निर्देशन किया,इस प्रकार से हमारे भारतीय संस्कृति में वेदों का महत्व सर्वोत्तम माना गया है, इसका अनुशरण-अनुकरण करते हुवे जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने उपदेश पंचकम में लिखा है कि-

वेदो नित्यमधीयतां तदुदितं कर्म स्वनुष्ठीयतां
तेनेशस्य विधियतामपचितिः काम्ये मतिस्त्यज्यताम् ।
पापोघः परिधूयतां भवसुखे दोषोऽनुसन्धीयता –
मात्मेच्छा व्यवसीयतां निजगृहात्तूर्णं विनिर्गम्यताम् ॥

तदुदितं कर्म स्वानुष्ठीयतां- अर्थात् वेदों में जिन कर्मों का वर्णन किया गया है उन्ही कर्मों का आचरण करना ही धर्म है। इस प्रकार से जगद्गुरु शंकराचार्य जी ने वेदों का अध्ययन करके अनेकों ग्रंथ समाज कल्याण के लिए लिखा और वैदिक धर्म की पुनः स्थापना की और उपनिषदों का भाष्य करके भारतीय संस्कृति को सर्वोच्च रखा। इसी प्रकार से वेदों का महत्व हमारे जीवन मे सबसे अधिक उपयोगी है। हमारी संस्कृति का उत्थान वेद अध्ययन करने से ही संभव है एवं उसमे वर्णित कर्मों का आचरण करना ही हमारा कर्तव्य है। भारत वर्ष के उद्भट मनीषियों द्वारा समय-समय पर किया गया वेदों का दोहन हमें सर्वदा वेदमय रहने का उत्तम मार्गदर्शन किया है। स्वामी दयानंद सरस्वती जी द्वारा रचित सत्यार्थ प्रकाश एक ऐसा ग्रन्थ है, जो वेदों के स्वरूप, उनके महत्व, और उसमें वर्णित सुभाषित ज्ञानों को दर्शाता है। सत्यार्थ प्रकाश वेद को देखने के लिए एक प्रकार से आंख व नेत्रों का कार्य करता है। यदि आंख न हो तो देख नहीं पाते, इसी प्रकार से यदि सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ महर्षि दयानन्द ने न बनाया होता तो सामान्य जन वेद के यथार्थ स्वरूप व महत्व को न जान पाते और साम्प्रदायिक विधर्मी मनमानी कर लोगों का धर्मान्तरण करते। अतः स्वामी जी का भारतीय वैदिक संस्कृति से प्रेम ही हमें वेदों की ओर ले जाने में मुख्य भूमिका निभा रही है । तत्पश्चात पूज्य श्री करपात्री जी महाराज हैं। प्रश्न चाहे वर्णाश्रम मर्यादा संरक्षणका हो अथवा शाश्वत सनातन धर्मके सत्य सिद्धान्तोंके संस्थापनका हो, वैदिक संस्कृति के प्रचार-प्रसार में उन्होंने अपना सर्वस्व लगा दिया। पराधीन भारतमें जन-जन में राजनीतिक चेतना जागृत करने का कार्य तो अनेक कर्मनिष्ठ नेताओं ने किया, किंतु विपरीत गति, कलुषित वातावरण एवं अल्पसहयोगमें भी धर्म, संस्कृति, वेद, शास्त्र, मंदिर, गौ, ब्राह्मण, यज्ञ एवं आस्तिकवाद के रक्षणार्थ जन-साधारण में व्यापक प्रचार करने के गुरुतर कार्य का संपादन यदि किसी ने किया है तो वे हैं – एक मात्र शिवावतार श्री स्वामी करपात्रीजी महाराज।

वेदोsखिलोधर्ममूलं

तत्पश्चात महर्षि वेद व्यास प्रतिष्ठान के संस्थापक वेदनिष्ठ स्वामी श्री गोविन्ददेव गिरि जी महाराज (संन्यास पूर्व नाम पूज्य श्री किशोर जी व्यास) ने भारतीय वैदिक संस्कृति को गुरुकुलीय परम्परा में पिरोते हुवे कृष्णद्वैपायन भगवान वेदव्यास द्वारा प्रशस्त किये हुवे मार्ग पर चलना ही इनका कर्तव्य और संकल्प है। इनके संकल्प को सत्य करते हुवे वर्तमान के चतुस्त्रिंशत गुरुकुल से प्रत्येक वर्ष वेद वेदांग सम्पन्न लगभग 400 वैदिक भारत माता की सेवा के लिए समर्पित कर रहे है। स्वामी श्री स्वयं नित्य वैदिक वटुक का पूजन करने के पश्चात ही दिनचर्या का अगला कदम बढ़ाते हैं। वेद के प्रति उनकी यह निष्ठा हमारे लिए अनुकरणीय है। स्वामी जी का लक्ष्य एकमात्र संसार का कल्याण है, और संसार का कल्याण वैदिक संस्कृति को बढ़ावा देने मात्र से ही संभव है। इसका पहल स्वामी जी ने जिस प्रकार से प्रारम्भ किया है वही एक मात्र सर्वोत्तम साधन है।
अतः आप सभी से निवेदन है कि भारतीय संस्कृति में वेद के महत्वता पर विशेष ध्यान देते हुवे वेद मंत्रों का चिंतन -मनन करें, और अपने स्वजनों को, अपने रिश्तेदारों को, अपने आत्मजनों को वेद पढ़ने के लिए प्रेरित करें। संतों का सत्कार करने हेतु उनका उचित मार्गदर्शन करें, शब्दों की निंदा ना करें, सदैव अतिथियों का सम्मान करें, अन्न कण को नष्ट ना करें, माता-पिता का नित्य दोनों हाथों से चरण स्पर्श करें, तत्पश्चात शुद्ध आचरण करते हुवे वेदों कि ओर आएं ।।

~ आचार्य अभिजीत

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