महावीर हनुमान जी को इन्द्रजीत मेघनाद ने बन्दी बना कर लंकाधिपति राक्षसेश्वर रावण के सम्मुख ला उपस्थित कर दिया। सभी लोग समझ रहे थे कि अब हनुमान की मृत्यु होने में कोई सन्देह नहीं है।
हनुमान के अपराध भी तो गम्भीरतम थे। अत्यन्त सुरक्षित अशोक वन में, जहाँ वैदेही जानकी गहन सुरक्षा में रखीं गईं थीं, प्रवेश करने का दुस्साहस किया था। इतना ही नहीं वैदेही सीता से संस्कृत भाषा में बातचीत भी की थी। उस बातचीत की विषयवस्तु राक्षस रक्षिकाएँ समझ नहीं सकीं थीं। उसने उस प्रमदा वन के फल तो खाए ही थे साथ ही वन को उजाड़ भी दिया था। सुरक्षाकर्मी राक्षसों का वध किया था। अनेक राक्षसवीरों के साथ लंकेश रावण के पुत्र अक्षयकुमार का भी वध कर डाला था।

हनुमानजी के ये सभी अपराध गम्भीर होने के साथ-साथ आश्चर्यजनक भी थे। रावण की दुर्गम नगरी में प्रवेश करने वाला यह वानर रावण को अद्भुत पराक्रमी दिखाई दे रहा था। उसे पूरा विश्वास था कि एक वानर अपने बल पर इतना दुस्साहस नहीं कर सकता है। उसने अपराधी हनुमान के पृष्ठपोषक शत्रु को जानने के लिए ही हनुमान को जीवित पकड़ लाने का आदेश मेघनाद को दिया था।
इधर हनुमान भी किसी न किसी ढँग से रावण के सम्मुख उपस्थित होकर ही अपना परिचय और श्रीराम का सन्देश देना चाहते थे।
रावण सामने बन्दी बने हुए वानर हनुमान को देख रहा था कि यह वानर है तब भी वह पूछता है कि रे वानर तू कौन है। रावण ने पूछा –


कह लंकेस कवन तें कीसा।
केहि के बल घालेसि वन खीसा।।
की धौं श्रवन सुनेसि नहिं मोही।
देखउँ अति असंक सब तोही।।
मारे निसिचर केहि अपराधा।
कहु सठ तोहि न प्रान कै बाधा।।


लंकेश रावण ने हनुमानजी से निम्न प्रश्न किये।

१. तू कौन वानर है
२.किसके बल का आश्रय लेकर तूने अशोक वन को उजाड़ दिया है।
३. क्या तूने मेरे सम्बन्ध में सुना नहीं है। मैं तुझे बहुत नि:शंक देख रहा हूँ।
४. तूने राक्षसों को उनके किस अपराध के कारण मारा है।
५. रे मूर्ख! क्या तुझे अपने प्राण जाने का डर नहीं है।

हनुमान जी इन सभी प्रश्नों के उत्तर बहुत चतुराई से देते हैं। वे अपना परिचय इस प्रकार देते हैं।

सुनु रावन ब्रह्मांड निकाया।
पाई जासु बल विरचित माया।।
सुनो रावण! जिसका बल पाकर यह माया (प्रकृति) ब्रह्माण्डों के समूह का निर्माण करती है।


जाके बल विरंचि हरि ईसा।
पालत सृजित हरत दससीसा।।
जिसके बल से ब्रह्मा विष्णु और महेश इस जगत का सृजन, पालन और हरण करते हैं

जा बल सीस धरत सहसानन।
अंडकोष समेत गिरि कानन।।
जिसके बल से सहस्रशीर्ष शेष (शेषनाग) इन पर्वतों और वनों समेत समस्त भूगोल को सिर पर धारण करते हैं।

धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता।
तुमसे सठन्ह सिखावन दाता।।
जो जगत में विविध प्रकार की देह धारण करके देवों रक्षा किया करता है और तुम्हारे जैसे शठ लोगों को सीख देता है।

इतना परिचय वे परमात्मा का देते हैं और तब कहते हैं कि श्रीराम वही ब्रह्माण्ड नायक हैं।

हर कोदंडा कठिन जेहि भंजा।
तोहि समेत नृप दल मद गंजा।।
जिसने कठोर शिवधनुष को भंग कर सभी राजाओं के दल का अभिमान ध्वस्त कर दिया था। उस समय उनमें तुम भी थे।

खर दूसन त्रिसिरा अरु बाली।
बधे सकल अतुलित बलशाली।।
जिसने खर, दूषण, त्रिशिरा और बालि जैसे अतुलनीय बलशालियों वध कर दिया है।


अब श्रीराम के साथ हनुमान अपना परिचय भी देते हैं।

जाके बल लवलेस तें जितेसि चराचर झारि।
तासु दूत मैं जाकरि हरि आनेसि प्रिय नारि।।
जिसके थोड़े से ही बल से तुमने चराचर जगत को जीत लिया है और जिसकी प्रिय स्त्री का तुम हरण करके लाए हो। मैं उसी पराक्रमी राम का दूत हूँ।

यह हनुमान ने रावण के पहले के दो प्रश्नों का उत्तर दिया। इसमें उन्होंने रावण को श्रीराम के असाधारण व्यक्तित्व का परिचय दिया। खर, दूषण,त्रिशिरा और बालि का नाम लेकर हनुमान ने रावण को त्रसित और क्षुब्ध कर दिया। ये चारों बल विक्रम में अपराजेय समझे जाते थे। खर का बल विक्रम और क्रूर स्वभाव सब लोग जानते थे। यद्यपि रावण ने इन सब के वध का समाचार पहले ही सुन रखा था अब उसी विजेता वधकर्त्ता का दूत रावण के सामने ऐसे खड़ा है मानों रावण की मृत्यु की सूचना देने आया हो।

राक्षसों के चरित्र में यह बात स्पष्ट देखी जा सकती है कि वे शूर नहीं होते हैं। बलवान योद्धा से सदा भय खाते हैं और विजय हेतु सामूहिक आक्रमण करने को वरीयता देते हैं। वे तो निरीह और दुर्बल लोगों पर अत्याचार करके आतंक फैलाते हैं जिससे जन साधारण में भय उत्पन्न होता रहे। उस आतंक के अपप्रचार से वे अपने आपको शूर प्रचारित करते हैं। आज भी संसार में ऐसे गिरोह विद्यमान हैं जो आतंक को अपनी सामर्थ्य मानते हैं। निरीह प्रजा पर अत्याचार करके विश्व में अपने शक्तिशाली होने का प्रचार करते हैं। और जब समय आने पर समकक्ष योद्धा से भेंट होती है तो उनकी भीरुता प्रकट हो जाती है।

अब हनुमानजी रावण के अन्य प्रश्नों का उत्तर देने लगे। वे कहते हैं –

जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई।
सहसबाहु सन परी लराई।।
मैं श्रीराम का दूत और किष्किन्धापति सुग्रीव का अनुचर हूँ। इसलिए देश-विदेश के सभी समाचार जानता हूँ। तुमने यहाँ पर भीरु देवों और दिक्पालों को बैठा लिया है किन्तु सहस्रबाहु से हुए अपने युद्ध और उसके परिणाम को इन लोगों को नहीं बता रहे। मैं तो उसे भी जानता हूँ।

समर बालि सन करि जासु पावा।
सुनि कपि वचन बिहँसि बिंहरावा।।
वीरवर बालि से युद्ध करके तुमने जो यश प्राप्त किया था उसे भी मैं जानता हूँ। हनुमान के ये वचन सुनकर रावण ने मुस्कराकर बात को ही टाल दिया। उसने इन तथ्यों को अनसुना कर उपेक्षा कर दी।


सहस्रबाहु और बालि से रावण की भेंट और लज्जाजनक पराजय बताती है कि रावण का आतंक केवल निरीह प्रजा पर चलता था। वीरों के सामने उसकी एक भी नहीं चलती थी।

हनुमान जी रावण को यही स्मरण कराते हुए कह रहे हैं कि तुमने मुझे अशंक देखकर और मानकर मेरा सही आकलन किया है। सहस्रबाहु और बालि के साथ हुए युद्धों में तुम्हारे पराक्रम को जानने वाला तुमसे डरेगा भी, ऐसा तुम क्यों सोचते हो।

अब सुनो रावण!

खायउँ फल प्रभु लागी भूखा।
कपि सुभाव में तोरेंउ रूखा।।
मैं प्रमदा वन में आया था। इसमें मधुर और स्वादिष्ट फल लगे हुए थे। मुझे भूख लगी थी और फल हम वानरों का भोजन ही है इसलिए मैंने फल खा लिए। फलों को हम न खाएँगे तो कौन खायेगा? तुमने यह विशाल रक्षाकोट बनाकर हम वानरों को फल खाने के अधिकार से वंचित कर अनुचित कार्य किया है।


भोज्य पदार्थों को सुरक्षित रखना तो तभी उचित हो सकता है जब नागरिकों का पेट भरा हो। नागरिक भूखे हों और राजपरिवार अपने लिए भोज्य पदार्थ सुरक्षित रख ले यह परिपाटी ही अनुचित है। तुम प्रभु हो। सब के रक्षक हो तो फिर अपने नागरिकों और आगंतुकों पर नाना प्रकार के प्रतिबन्ध क्यों लगते हो।
जिसको जब भूख लगे तभी उसे भोजन उपलब्ध जाए तो तब कोई समस्या ही न रहे। स्वर्ण के प्रासाद बनाने मात्र से राज्य वैभवशाली नहीं होता। वह नागरिकों को आवश्यक वस्तुओं की सहज उपलब्धता से होता है।


मैं वानर हूँ। इस शाखा से उस शाखा पर कूदना हम लोगों का स्वभाव ही है। हमारे इसी आचरण से कुछ वृक्ष टूट गये। इसे तुम अपराध क्यों कहते हो? मेरा वृक्षों के फल खाना और वृक्ष तोड़ना अपराध की श्रेणी में नहीं आता।

वे आगे कहते हैं –

सबके देह परमप्रिय स्वामी।
मारहिं मोहि कुमारग गामी।।


हे स्वामी! सभी प्राणियों को अपनी देह सर्वाधिक प्रिय होती है। अपराधी और कुमार्ग पर पग रखनेवाले तो तुम्हारे वे रक्षक थे जिनको तुमने प्रमदा वन की रक्षा के लिए बैठा रखा था। एक भूखे व्यक्ति को अपना भोज्यपदार्थ खाने से रोकना और उसे मारना पीटना अपराध है। यह अपराध वे लोग ही कर रहे थे। वह भोज्य पदार्थ भी मैं किसी से छीनकर नहीं खा रहा था। पेड़ों पर लटके हुए फल हम वानरों के ही उपयोग के हैं। वे रक्षक अकारण ही मुझे मारने लगे थे।

फिर क्या था राक्षसेश्वर !

जिन मोहि मारा ते मैं मारे।
तेहि पर बाँधेउ तनय तुम्हारे।।

जिनने मुझे मारा उन्हीं को मैंने मारा। जो मुझे नहीं मार रहे थे उनको मैंने छुआ तक नहीं। कई और भी सशस्त्र रक्षिकाएँ वहाँ थीं। न उनने मुझे मारा न मैंने उनको। हम लोगों का यही चरित्र है कि जिसने हमारा कोई अपराध नहीं किया उसे हम कभी नहीं मारते। किन्तु जो हमें मारते या मारने की सोचते भी हैं, हम उन्हें और उनके सहायकों को मार देते हैं। हम उन्हें छोड़ते भी नहीं।

ऐसा होने पर भी मुझ निरपराधी को तुम्हारे पुत्र ने बन्दी बना लिया है। सभी अपराध तो तुम्हारे लोग कर रहे हैं। और तुम हमें दोषी बता रहे हो।

हनुमानजी आगे कहते हैं –

मोहि न कछु बाँधे कै लाजा।
कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा।।

तुमने पूछा कि क्या मुझे अपने प्राणों का भय नहीं है? तुम्हारे दल के लोगों में से किसी में इतनी शक्ति नहीं जो मेरे प्राण हरण कर सके।हाँ संग्राम भूमि में बन्दी बनाया जाना मेरे लिए लज्जा का कारण हो सकता था किन्तु मुझे बन्दी बनाए जाने से कोई लज्जा नहीं है। मेरे लिए मेरे प्रभु श्रीराम का कार्य सर्वोपरि है। मेरी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा उस लक्ष्य के सामने कुछ भी नहीं है।

तुम्हारा यह पुत्र मेघनाद तो जानता ही है कि मैं इसके नागपाश से बिल्कुल भी व्यथित या बाध्य नहीं हूँ। मैं तो इस राज्यसभा में स्वयं ही आकर अपने स्वामी का स्पष्ट सन्देश स्वयं तुम्हें देना चहता था। इसीलिए मैंने इस बन्धन का कुछ भी प्रतिरोध नहीं किया था।

आशीष कुमार पांडेय
केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय तिरुपति

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