प्रसिद्ध देवासुर संग्राम के पश्चात् इस धरा पर दो महाभयंकर विश्वयुद्ध हुए हैं। पहला रोमहर्षक राम-रावण युद्ध और दूसरा महाभयंकर महाभारत युद्ध। इन दोनों महायुद्धों में विश्व के प्राय: सभी वीरों ने भाग लिया था। इसलिए इन दोनों को यथार्थत: विश्वयुद्ध कहा जाता है।
देवासुर संग्राम के अप्रतिम और निर्णायक योद्धा महाविष्णु थे जिन्होंने अपने रणकौशल और मारक अस्त्रों के बल पर असुरों पर निर्णायक विजय पायी थी। इसके बाद जितने भी युद्ध हुए, उन सबमें इस युद्ध की विभिन्न घटनाओं को उद्धृत किया जाता रहा है।
इनमें से राम-रावण युद्ध तो इतना भयानक और अद्वितीय था कि महर्षि वाल्मीकि ने उसके लिए कोई उपमा ही नहीं गिनी। वे लिखते हैं-

रामरावणयोर्युद्धं रामरावणयोरिव।
राम-रावण का युद्ध राम-रावण युद्ध के समान था।

कहने को तो यह युद्ध राम और रावण के मध्य था परन्तु इसमें भाग लेने वाले योद्धा विश्व भर से आये थे। राम की ओर से वानरराज सुग्रीव ने अपनी सारी सेना युद्ध के लिए प्रस्तुत कर दी थी। राजा सुग्रीव के आदेश पर सम्पूर्ण पृथ्वी पर रहने वाले वानरों और ऋक्षों को युद्ध में भाग लेने का आदेश प्रसारित किया गया था और वे सब आए भी थे। दूसरी ओर राक्षसराज रावण ने भी युद्ध की विभीषिका को समझकर समस्त भूमण्डल से राक्षसों, असुरों और दानवों को लंका में युद्ध के लिए आमन्त्रित किया था।
यह जानना अत्यन्त रोचक (दिलचस्प) और कौतूहलपूर्ण होगा कि जब श्रीराम का रावण से पहला संवाद हुआ होगा तो वह कैसा हुआ होगा? श्रीराम ने रावण से क्या कहा होगा ? इतना ही नहीं यह भी रोमाञ्चक होगा कि जब श्रीराम के सामने पहली बार रावण आया होगा तब उन्होंने उससे क्या कहा होगा?
हम इस लेख में इन्हीं प्रसङ्गों को लिखना चाहते हैं। राम रावण के भीषण युद्ध के पूर्व श्रीराम ने तीन बार रावण से संवाद किया। दो बार दूतों के माध्यम से और एक बार स्वयं प्रत्यक्ष रावण से।
राक्षसाधिपति रावण के अत्यन्त विश्वासपात्र मन्त्री और गुप्तचरों के प्रधान शुक और सारण श्रीराम के दल में सैन्य क्षमताओं का पता लगाने के लिए आए थे किन्तु विभीषण की तत्परता से पकड़े गए और बन्दी बना लिए गए। श्रीराम ने उदारतापूर्वक उन्हें बन्धनमुक्त कर दिया और लंका जाने की अनुमति दे दी। जब वे शुक और सारण लंका की ओर जाने लगे तब श्रीराम ने उनसे रावण के लिए एक सन्देश भिजवाया था। वह सन्देश इस प्रकार था।

यद् बलं त्वं समाश्रित्य सीतां मे हृतवानसि।
तद् दर्शय यथाकामं ससैन्यश्च सबान्धव:।।
वा.रा.६/२५/२३

जिस बल का आश्रय लेकर तुमने मेरी सीता का अपहरण किया है उस बल को अब अपनी सेना और बान्धवों के साथ मिलकर दिखाओ।

श्व: काल्ये नगरीं लङ्कां सप्राकारां सतोरणाम्।
रक्षसां च बलं पश्य शरैर्विध्वंसितं मया।।
वा.रा.६/२५/२४

कल प्रात: तुम लंका नगरी को परकोटों तथा तोरणों सहित और राक्षसों के बल को मेरे बाणों से विध्वंसित होता हुआ देखोगे।

क्रोधं भीममहं मोक्ष्ये ससैन्ये त्वयि रावण।
श्व: काल्ये वज्रवान् वज्रं दानवेष्विव वासव:।।
वा.रा.६/२५/२५

कल प्रातः मैं अपना भयानक क्रोध तुम्हारी सेना सहित तुम्हारे ऊपर वैसे ही छोड़ूँगा जैसे वज्रधारी इन्द्र ने दानवों पर अपना वज्र छोड़ा था।
श्रीराम द्वारा रावण के दूत के माध्यम से भेजे गए इस सन्देश में निम्न तथ्य स्पष्ट हैं।

१. श्रीराम को सीता जी के अपहरण पर बहुत रोष है।
२. वे रावण के बल को चुनौती दे रहे हैं। वे यह समझते हैं एकाकी रावण में उनका सामना करने की क्षमता नहीं है इसलिए वे उसे सेना और बान्धवों सहित ललकार रहे हैं।
३. श्रीराम घोषणा कर रहे हैं कि सीताहरण के दण्ड स्वरूप कल सारी लंका नगरी को विध्वंसित किया जाएगा। भले ही उसका परकोटा और तोरण कितने ही सुदृढ़ क्यों न हों। वे रावण के छिपे रहने के सर्वाधिक सुरक्षित गढ़ को ही ढहा देने की घोषणा कर रहे हैं।
४. वे स्पष्ट कह रहे हैं कि सीताहरण के कारण उनका क्रोध बहुत बढ़ा हुआ है। उस क्रोध के कारण कल मारक प्रहार रावण और उसकी रक्षक सेना पर किया जाएगा।

इसके पश्चात् जब श्रीराम की सेना सुबेल पर्वत के समीप ठहरी हुई थी तब उन्होंने बालिकुमार अंगद को दूत बनाकर अपना एक सन्देश रावण के पास और पहुँचाया।
यह सन्देश इसलिए आवश्यक था क्योंकि पहला सन्देश ले जाने वाला व्यक्ति रावण का दूत था। वह सन्देश किस रूप में और किस ढँग से दिया गया है इसकी पुष्टि नहीं हो सकी थी।
अब यह सन्देश श्रीराम का विश्वासपात्र और अत्यन्त निर्भीक व्यक्ति लेकर जा रहा था। श्रीराम का यह दूसरा सन्देश इस प्रकार था।

यस्य दण्डधरस्तेऽहं दाराहरणकर्शित:।
दण्डं धारयमाणस्तु लङ्काद्वारे व्यवस्थित:।।
वा.रा.६/४१/६४

पत्नी के अपहरण से व्यथित और क्रोधित मैं तुम्हें दण्ड देने की पात्रता और क्षमता रखता हूँ। उसी दण्ड को देने के लिए मैं लंका के द्वार पर आ खड़ा हुआ हूँ।

बलेन येन वै सीतां मायया राक्षसाधम।
मामतिक्रमयित्वा त्वं हृतवांस्तन्निदर्शय।।
वा.रा.६/४१/६६

राक्षसाधम! तुमने जिस बल से छलपूर्वक और मुझे दूर हटाकर सीता का अपहरण किया था उस बल को प्रदर्शित कर।

अराक्षसमिमं लोकं कर्तास्मि निशितै: शरै:।
न चेच्छरणमभ्येषि तामादाय तु मैथिलीम्।।
वा.रा.६/४१/६७

यदि तूने उसी मैथिली सीता को लाकर मेरी शरण ग्रहण नहीं की तो मैं अपने तीक्ष्ण बाणों से इस संसार को ही राक्षसरहित कर दूँगा।

धर्मात्मा राक्षसश्रेष्ठ: सम्प्राप्तोऽयं विभीषण:।
लङ्कैश्वर्यमिदं श्रीमान् ध्रुवं प्राप्नोत्यकण्टकम्।।
वा.रा.६/४१/६८

मेरे साथ ये राक्षसश्रेष्ठ धर्मात्मा विभीषण आए हैं। निश्चय ही ये श्रीमान् लंका के इस अकण्टक ऐश्वर्य को प्राप्त करेंगे।

न हि राज्यमधर्मेण भोक्तुं क्षणमपि त्वया।
शक्यं मूर्खसहायेन पापेनाविदितात्मना।।
वा.रा.६/४१/६९

तुम पापी हो। तुम्हें आत्मज्ञान भी नहीं है। तुम्हारे सहायक मूर्ख हैं। अत: तुम्हें अब एक क्षण के लिए भी अधर्मपूर्वक राज्य नहीं भोगने दिया जाएगा।

युध्यस्व मां धृतिं कृत्वा शौर्यमालम्ब्य राक्षस।
मच्छरैस्त्वं रणे शान्तस्तत: पूतो भविष्यसि।।
वा.रा.६/४१/७०

तुम धैर्य धारण कर शौर्य का आश्रय लेकर मेरे साथ युद्ध करो। मेरे बाणों द्वारा तुम जब रणभूमि में शान्त हो जाओगे तभी तुम पवित्र हो जाओगे।

यद्याविशसि लोकांस्त्रीन् पक्षीभूतो निशाचर।
मम चक्षु:पथं प्राप्य न जीवन्प्रतियास्यसि।।
वा.रा.६/४१/७१

निशाचर! यदि तुम पक्षी होकर तीनों लोकों में भी प्रवेश कर घूमते रहो तो भी अब मेरी दृष्टि में आ जाने के पश्चात् अपने जीवन को बचाकर अपने घर नहीं लौट सकोगे।

ब्रवीमि त्वां हितं वाक्यं क्रियतामौर्ध्वदेहिकम्।
सुदृष्टा क्रियतां लङ्का जीवितं ते मयि स्थितम्।।
वा.रा.६/४१/७२

मैं तुमको तुम्हारे हित की बात कहता हूँ। तुम अपने आत्मकल्याण हेतु दान-पुण्य और सुकृत कर डालो। लंका को भी भली-भाँति देख लो; क्योंकि अब तुम्हारा जीवन मेरे अधीन हो चुका है।
अङ्गद के द्वारा भेजे गए श्रीराम के इस सन्देश में रावण को दण्ड देने की बात तो है ही, साथ ही यह भी कहा गया है कि उसके द्वारा सीताहरण का जघन्य कृत्य करने से उन्हें कष्ट पहुँचा है इसलिए उन्हें रावण को दण्ड देने का पूरा अधिकार प्राप्त है। सन्देश में रावण को बलात् राज्यच्युत कर दिए जाने की भी उनकी प्रतिज्ञा है। इतना ही नहीं, लंका के उस राज्य को रावण का वध कर देने के पश्चात् विभीषण को सौंप देने का भी उल्लेख है। श्रीराम विभीषण को न केवल राक्षसों में श्रेष्ठ बता रहे हैं अपितु उन्हें धर्मात्मा भी घोषित कर रहे हैं। दूसरी ओर रावण को पापी, अधार्मिक, आत्मज्ञान से रहित बताकर राज्य करने के सर्वथा अयोग्य बता रहे हैं। वे रावण को यह भी सन्देश दे रहे हैं कि रावण की प्राणरक्षा अब सर्वथा असम्भव है। रावण के द्वारा किये गये जघन्य पापों का अब कोई प्रायश्चित नहीं है। उसको तो अब श्रीराम के बाण ही उसे प्राणहीन कर पवित्र करेंगे।
तीसरा सन्देश रावण से प्रत्यक्ष संवाद के रूप में ही है। रावण जब पहली बार श्रीराम के सामने रणभूमि में उपस्थित हुआ, तब उन्होंने रावण से क्या कहा, यह इस संवाद में निहित है।

तिष्ठ तिष्ठ मम त्वं हि कृत्वा विप्रियमीदृशम्।
क्व नु राक्षसशार्दूल गत्वा मोक्षमवाप्स्यसि।।
वा.रा.६/५९/१२९

राक्षसों में बाघ बने फिरने वाले रावण! खड़ा रह। खड़ा रह। मेरा ऐसा अपराध करके तू कहाँ जाकर मुझसे बच पाएगा।

यदीन्द्रवैवस्वतभास्करान् वा
स्वयंभुवैश्वानरशङ्करान् वा।
गमिष्यसि त्वं दशधा दिशो वा
तथापि मे नाद्य गतो विमोक्ष्यसे।।
वा.रा.६/५९/१३०

यदि तुम इन्द्र, यम अथवा सूर्य के समीप जाओ, ब्रह्मा, अग्नि अथवा शंकर के समीप जाओ अथवा दसों दिशाओं में भागकर जाओ तो भी आज तुम मुझसे बच नहीं पाओगे।

यश्चैष शक्त्या निहतस्त्वयाद्य
गच्छन् विषादं सहसाभ्युपेत्य।
स एष रक्षोगणराज मृत्यु:
सपुत्रपौत्रस्य तवाद्य युद्धे।।
वा.रा.६/५९/१३१

राक्षसराज! तूने अपनी शक्ति के द्वारा युद्ध में जाते हुए लक्ष्मण को आहत कर दिया है और वे सहसा विषाद को प्राप्त हो गये हैं। उस तिरस्कार के प्रतिशोध के लिए यह राम पुत्रपौत्रों सहित तेरी मृत्यु के रूप में उपस्थित हो गया है।

एतेन चात्यद्भुतदर्शनानि
शरैर्जनस्थानकृतालयानि।
चतुर्दशान्यात्तवरायुधानि
रक्ष:सहस्राणि निषूदितानि।।
वा.रा.६/५९/१३२

रावण! इसी राम ने जनस्थान में निवास बना कर रहने वाले और अद्भुत एवं दर्शनीय उन चौदह हजार राक्षस योद्धाओं का अपने बाणों से संहार कर डाला था जो उत्तमोत्तम अस्त्र शस्त्रों से सम्पन्न थे।

श्रीराम के इस तीसरे सन्देश में रावण के प्रति निम्न बातें कहीं गईं हैं।
१. रावण आज पहली बार श्रीराम के दृष्टि पथ में आया है इसलिए वे तत्काल उसका वध करने के लिए ललकार रहे हैं। खड़ा रह, खड़ा रह कहकर वे उसे रण न भागने के प्रति सावधान कर रहे हैं। वे कह रहे हैं कि मेरा अपराध करके भागने से कोई लाभ नहीं। अब उसका बच पाना असम्भव है।
२. शक्तिशाली देवों की शरण में जाने अथवा पृथ्वी पर दसों दिशाओं में भागकर छिप जाने पर भी अब उसके प्राण नहीं बच सकते।
३. आज के युद्ध में अभी अभी रावण ने शक्तिका प्रहार कर लक्ष्मण को आहत कर देने पर वे महाक्रोध से भरे हुए हैं और रावण को पुत्र पौत्रों सहित मार डालने के लिए उद्यत हैं।
४. वे रावण को जनस्थान में किये गये अपने उस पराक्रम का स्मरण करा रहे हैं कि किस प्रकार उन्होंने अकेले ही खर, दूषण और त्रिशिरा सहित चौदह हजार राक्षसों का वध कर डाला था।

उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि परकीय और स्वकीय दूत के हाथ से भेजे गये संदेशों की भाषा और शब्दचयन में कितना अन्तर है। यद्यपि सीताहरण के कारण रावण का दोष और श्रीराम का रोष दोनों में विद्यमान है। दोनों संदेशों में वे रावण को दण्ड देने का अपना अधिकार और उसका औचित्य निर्विवाद होना प्रतिपादित करते हैं। वे इस महायुद्ध का सारा दोष रावण के ऊपर डालने में सफल हैं।

तीसरे प्रत्यक्ष सन्देश में श्रीराम रावण की सुनिश्चित मृत्यु अपने बाहुबल से कर देने की घोषणा उसी के सामने करते हैं। जब रावण ससैन्य रणभूमि में उपस्थित हो ही गया है तब श्रीराम को उसका वध कर उसके द्वारा किये जा रहे अधर्म और अत्याचार का अन्त कर देने का वीरोचित अवसर मिला है। वे उसका यथावत् उपयोग भी करते हैं।

ये सैन्य सन्देश दो प्रतिद्वन्द्वी देशों के लिए आज भी प्रेरक और मार्गदर्शक हो सकते हैं।

आशीष कुमार पांडेय
(राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय तिरुपति)

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